Sunday 28 January 2018

त्रिभंगी छंद


 
= 1=


दिल धेले भर का, घाट न घर का, चादर सरका, मुँह खोले।
बरसों का मारा, टूटा तारा, फिर से हारा, क्या बोले।।
खुद ही बौराया, समझ न पाया, क्यों है जाया, प्रश्न करे।
चारों दिशि ताके, गलियाँ झांके, खाली पा के, धीर धरे।।


= 2 =

हैं घाट न घर के, बातों भर के, सुन सुन कर के, कान पके।
उलझन को गुनते, सहते-सुनते, रस्ते चुनते, प्राण थके।।
पिसकर पाटों में, सब घाटों में, बिक हाटों में, छले गए।
रिश्ते सब टूटे, रहबर छूटे, मीत अनूठे, चले गए।।


- मदन प्रकाश

Sunday 21 January 2018

मत उदास हो


मत उदास हो थके मुसाफिर
कुछ श्रम बिंदु बिखर जाने से
यह पथ और निखर जायेगा।


रोक सकी कब पागल रजनी
आने वाली सलज उषा को
बाँध न पाई काली बदली
उगते रवि की विकल प्रभा को 


अपराजित निशीथ घट-घटकर
अभिनव पूनम को पायेगा।।


कब विकास के चरण रुके हैं
बीते युग की मनुहारों से
ठिठकी नहीं चेतना जन की
भावी भय की बौछारों से 


सम्भव है आने वाला कल
कोई ज्योति शिखर लायेगा।।


सहमी नहीं नवेली नदिया
कंकरीले पथ या खारों से
गति पाई है गिरते-उठते
ऊँचे पर्वत की धारों से 


बढ़ते जाना रे! अंकुर तू
हर दिन और निखर जायेगा।।


***** मधु प्रधान

Sunday 14 January 2018

प्रीति के दोहे

 
पावन प्रेम प्रतीति है, सौख्य शान्ति आगार।
जो डूबा सो पार है, पार हुआ भव पार।।


श्रद्धा, संयम, त्याग को, सिखलाती है प्रीत।
प्रेमी गाते हैं जिसे, वह है गीतातीत।।


प्रेम न चाहे योग्यता, रंग, रूप, धन, रीत।
"चंचल" इसमें हारकर, मिले परस्पर जीत।।


नाम रटे रसना सदा, प्रिय छवि उर उत्कीर्ण।
पलको अब अविरल बहो, करो न मन संकीर्ण।।


तुम्हीं कामना भोग हो, तुम्हीं साध्य आराध्य।
हो न कभी अनुराग कम, पूजूँ तुम्हें अबाध्य।। 


***** चंचलेश शाक्य, एटा (उ.प्र.)

Sunday 7 January 2018

सूरज घर पर आग तापता


सूरज घर पर आग तापता,
धुँधला धुँधला पड़े दिखाई।


हुआ तुषारा पात, पीत-सरसों मुरझाई।
ऊपर से ये मुई, शीत ऋतु की पुरवाई।।
जड़ चैतन्य हुए सब जड़वत,
साथ छोड़ भागी परछाई।

लौह पुरुष सी रेल, सिहरती पड़े दिखाई।
हाड़ माँस की देह, काँपती ओढ़ रजाई।।
थमती कहाँ समय की सुइयाँ,
आख़िर खाई कौन दवाई।

भूख खेलती खेल, मनुज को रेल बनाई।
छोड़े मुँह से वाष्प, पैर दो पहिए भाई।।
आधी आबादी की आशा,
धूप पूरती बाँट रजाई।

***** गोप कुमार मिश्र

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...