Sunday 26 November 2017

अपना धर्म निभाते


मानसरोवर में सबको ही, सुंदर दृश्य लुभाता।
हंस हंसिनी विचरण करते, धवल रंग से नाता।।
सरस्वती के वाहन होकर, हंसा मोती चुगते।
शांत भाव के पक्षी है ये, खुले गगन में उड़ते।। 


प्रणय पंथ के सच्चे साथी, आपस में हर्षाये
शुभ ऊषा का पंथ निहारें, काली रात बिताये।।
इनकी मूरत लगती भोली, प्रीति निभाती जोड़ी।
सम्मोहित हो कविगण लिखते, बैठ वहाँ पैरोडी।।


प्रेमी ये हंसों की जोड़ी, दिल दरिया पैमाना।
ममता के सागर में बसते, इनका वही ठिकाना।
धरती अम्बर तीन लोक में, अपना धर्म निभाते।
हंस वाहिनी माँ कहलाती, जग में उन्हें घुमाते।।


***** लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला 

Sunday 19 November 2017

बाल कविता


अपने प्यारे गुड्डों के संग
छोटी-सी गुड़िया बन जाऊँ


छुप्पा-छुप्पी खेलूँ, भागूँ
छुपकर देखूँ फिर छुप जाऊँ


बालू को थप-थपकर, रचकर
छोटा सा घर एक बनाऊँ


मेरी अपनी छुक-छुक गाड़ी
बस उसमें ही मैं रम जाऊँ


कितने अच्छे लोग यहाँ पर
सबको कुछ खुशियाँ दे पाऊँ


शानू, डूडू, सोना, पुटलू
सब पर अपना रौब जमाऊँ


सपनों की दुनिया में जाकर
परियों को भी खूब रिझाऊँ


छप-छप पानी में मैं खेलूँ
कागज़ की इक नाव बनाऊँ


चाँद-सितारों को तक-तक कर
गुड्डों के संग अब सो जाऊँ


  ***** आराधना

Sunday 12 November 2017

अंतस भवन तुम्हें लिख दूँगा




तुम जो प्रणय गीत बन जाओ
सारा सृजन तुम्हें लिख दूँगा
आकर मिलना प्रेम नगर में
अंतस भवन तुम्हें लिख दूँगा

हम चातक प्यासे सावन के
औ तुम मेघों की शहजादी
तुमने कर घन घोर गर्जना
मधुवन में ज्वाला सुलगा दी
इस प्यासे उजड़े उपवन में
ऋतु वहार बन कर बरसो तो
सच कहता हूंँ इस मौसम में
पावस मिलन तुम्हें लिख दूँगा
 

सोलह सावन कैसे बीते
तुम अपने अनुभव लिख देना
जो बसंत मैंने देखे हैं 

उन सब गीतों को पढ़ लेना
फिर होठों पर बोल सजा कर
साथ अगर मेरे गाओ तो
अरमानों की फुलबगिया के
सारे सुमन तुम्हें लिख दूँगा
 

ख़ुशबू बनकर बिखर जाओ तो
बाग बाग गुलशन हो जाये
फिर सोलह शृंगार सजाना
गद गद अंतर मन हो जाए
आओ बैठें एक डाल पर
स्वप्न अगर साकार हुए तो
मधुर महकती अमुराई की
पुरवइ पवन तुम्हें लिख दूँगा
 

हम अनुरोध किए फिरते हैं 
तुम कुहू कुहू कू का करती
में प्यासा हूँ जनम जनम से
तुम कहाँ कहाँ ढूंँढा करती
महामिलन को मुखरित करना
ही तकदीर हमारी है तो
सागर एक बार स्वीकारो
सातो वचन तुम्हें लिख दूँगा


*** राधा बल्लभ पाण्डेय सागर

Sunday 5 November 2017

सपना रहा अधूरा


लड़ता रहा युद्ध जीवन का,
सपना रहा अधूरा मन का।

सुख धन दौलत खूब बटोरा,
याद भूलकर अपने तन का,
ढली उम्र तब दुख के बादल,
भूल गया अभिमान बदन का।

घात करें विश्वास बनाकर,
मुख से मीठा काले मन का,
हुआ तभी बदनाम विभीषण,
जैसे भेद खुला रावण का।

संतो की शक्लो में बैठा,
ढोंगी दुश्मन आज चमन का,
जाल बिछाता कदम कदम पर,
करता है लालच नित धन का।

मातृभूमि की सेवा में नित,
निरत पुष्प है इस उपवन का,
अटल अखंडित भारत वासी,
अडिग हमेशा अपने प्रण का।

हम अपनी सीमा के रक्षक,
हमें नहीं डर है जीवन का,
चाहे जो आतंक पसारों,
नहीं बुझेगा दीप अमन का।

भीमराव झरबडे "जीवन" बैतूल

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...