Sunday 28 May 2017

फिर लगी आँखें भिगोने




उम्र मुझसे
पूछती अब
हैं कहाँ वे दिन पुराने


जिन दिनों
हमने रचे थे
धूल से सोनल घरौंदे
फिर बनाया
बाग हमने
और रोपे नवल पौधे


वे विगत पल
पूछते अब
हैं कहाँ वे दिन सलोने


जिन दिनों
हमने नहाये
तीर्थ नैमिष गोमती जल
जिन दिनों
हमको सुलभ था
नेहपूरित मातृ आँचल


घाट नदियाँ
पूछते अब
क्यों नयन के आर्द्र कोने


खो गये
मधु मंजरी के
वे सुवासित बाग न्यारे
और खोये
सावनी दिन
मेहधारी जलद कारे


सोचती अब
उम्र बैठी
फिर लगी आँखें भिगोने


***बृजनाथ श्रीवास्तव

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