Sunday 28 May 2017

फिर लगी आँखें भिगोने




उम्र मुझसे
पूछती अब
हैं कहाँ वे दिन पुराने


जिन दिनों
हमने रचे थे
धूल से सोनल घरौंदे
फिर बनाया
बाग हमने
और रोपे नवल पौधे


वे विगत पल
पूछते अब
हैं कहाँ वे दिन सलोने


जिन दिनों
हमने नहाये
तीर्थ नैमिष गोमती जल
जिन दिनों
हमको सुलभ था
नेहपूरित मातृ आँचल


घाट नदियाँ
पूछते अब
क्यों नयन के आर्द्र कोने


खो गये
मधु मंजरी के
वे सुवासित बाग न्यारे
और खोये
सावनी दिन
मेहधारी जलद कारे


सोचती अब
उम्र बैठी
फिर लगी आँखें भिगोने


***बृजनाथ श्रीवास्तव

Sunday 21 May 2017

अत्त दीपो भव


अंतिम साँसे गिन रहे, थे जब गौतम बुद्ध।
भद्रक रो कहने लगा, गला हुआ अवरुद्ध।।
राह दिखाए कौन अब, सूर्य चला अवसान।
दीप ज्ञान का बुझ रहा, कौन करै मों शुद्ध।।


भद्रक से प्रभु ने कहे, अंतिम ये उपदेश।
अपना दीपक आप बन, दीप्त होय परिवेश।।
मन वाणी अरु कर्म से, साधक साधे साध्य।
मन-दर मंदिर होय तब, जहाँ बसे अवधेश।।


जीव भटकता रात दिन, तीर्थ कंदरा खोह।
करे कामना बिन तजे, काम क्रोध मद मोह।।
बाहर-बाहर ढूँढता, अंतर लिए प्रकाश।
साधक साधन साध्य सब, ईश अंश ही सोह।।


***** गोप कुमार मिश्र

Sunday 14 May 2017

मौन के साये


 
जाम होठों से लगाये मीत तेरे नाम पर
मौन के साये लदे हैं आज अपनी शाम पर


कब शुरू होकर कहाँ ढलती रहीं शामें सभी
कौन रक्खे अब नज़र आगाज़ पर अंजाम पर


साँझ की भी क्या कहें, बस रात छाती है यहाँ
रोज़ तारे देखते हैं चुप खड़े हो बाम पर


चूम शामों की पलक हम कर रहे थे बंदगी
अब खुदा ही दे गवाही इश्क़ के इलज़ाम पर


ज़िन्दगी की साँझ में क्या खूब तुम हो आ मिले
वक़्त मेरा मुस्कुराया देर के ईनाम पर 


 ***** मदन प्रकाश

Tuesday 9 May 2017

हे! कर्मवीर

 
हे! कर्मवीर, श्रम देवपुरुष, हे! सर्जक, साधक, प्रतिपालक,
हे! सृष्टि समर के गणनायक, हे! जन गण मन के अधिनायक,
मैं कर्म योग का परिकल्पन, नैनों में धरने आई हूँ,
औ कर्म महत्ता जन जन के, अन्तस घट भरने आई हूँ


श्रम स्वेद नीर से ही सिंचित, धरणी की सारी काया है,
कब हाथ हिलाए बिन बोलो, दाना मुख तक भी आया है,
जैसा जिसने बोया पाया, यह नियम अटल है धरती पर,
प्रारब्ध न गले लगाता फिर, जो बैठा कर पर कर धर कर,
खुशबू हूँ सद्कर्मो की मैं, हर सदन बिखरने आई हूँ।


आध्यात्म, तपस्या, अनुशीलन,सन्यास अपरिग्रह, आत्मबल,
हैं कर्म साधना रूप अलग, करते मानव को सुदृढ़, सबल,
श्रद्धा, विश्वास, भक्ति आशा, हर कर्म मूल मन का दर्पण,
निज अहम बैर के भावों का, कर मानस गंगा में तर्पण,
मैं कर्म देविका जन जन के, कर कमल सँवरने आई हूँ।

धरणी, अम्बर, सूरज, तारे, अविराम सदा पथ पर चलते,
हैं कल्प करोड़ों बीते पर, देखा है क्या इनको थकते,
रावण हंता श्रीराम प्रभो, या कृष्ण सुदर्शनधारी हैं,
निज कर्म यज्ञ प्रतिपालन को, धरणी पर ये अवतारी हैं,
इस देव धरा के कण कण में, उत्फुल्ल विचरने आई हूँ।


***** दीपशिखा सागर

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...