Sunday 26 March 2017

शहीद दिवस



आज शहीदी दिवस साथियो, भगत सिंह से वीरों का।
राजगुरू, सुखदेव सरीखे, वतनपरस्त फकीरों का।
जब भारत की, महाघोष की ये हुंकारें भरते थे।
गोरे अफसर इनके डर से, थर-थर काँपा करते थे।


आजादी की खातिर इनने, हँस-हँस के बलिदान दिया।
भारत के तीनो बेटों ने, एक साथ प्रस्थान किया।
इन मतवाले वीरों की इस, कुर्बानी का ध्यान रहे।
हाथ तिरंगा औ होंठों पर, भारत का जयगान रहे।


***** रणवीर सिंह (अनुपम)

Sunday 19 March 2017

न तेरा न मेरा

 
यही झगड़ा सदा से है कि तेरा है कि मेरा है
समझता पर नहीं कोई कि चिड़िया का बसेरा है


लिखा लेते वसीयत हम सभी घर बार दौलत की
मगर ले कुछ नहीं जाते हमें लालच ने घेरा है


नहीं मालूम अगले पल यहाँ होंगे वहाँ होंगे
निभाने को किया वादा नहीं होता सवेरा है 


कफ़न के बाद भी ख़्वाहिश बची रहती ज़माने की
दफ़न के बाद भी रहता यहीं दो गज़ का डेरा है 


भुला देता ज़माना हर किसी को बाद मरने के
मगर रहता वही है याद जिसका दिल में डेरा है


*** अशोक श्रीवास्तव, रायबरेली

Sunday 12 March 2017

पाँच कह मुकरिया - होली विशेष


(1)
मैं उस पर जाऊँ बलिहारी,
डाले रँग भर-भर पिचकारी,
बचे न साबित मेरी चोली,
ए सखि साजन? नहिं सखि होली।।1।।
(2)
आकर मुझको भंग पिलाए,
अजब-गजब फिर मस्ती छाए,
पकड़ा धकड़ी हँसी ठिठोली,
ए सखि साजन? नहिं सखि होली।।2।।
(3)
उसके संग करूँ मैं मस्ती,
मिट जाती मेरी सब हस्ती,
चेहरा बन जाता रँगोली,
ए सखि साजन? नहिं सखि होली।।3।।
(4)
दिन भर मुझको भंग पिलाए,
तन मन मेरा खिल-खिल जाए,
तंग लगे तब गीली चोली,
ए सखि साजन? नहिं सखि होली।।4।।
(5)
गुझिया मीठा खूब खिलाए,
रंग लगाकर गले लगाए,
ठंडाई में डाले गोली,
ए सखि साजन? नहिं सखि होली।।5।।


**हरिओम श्रीवास्तव**

Sunday 5 March 2017

साथी/मित्र पर पाँच दोहे


सच्चा साथी राखिए, दुख में दे जो साथ।
एक विभीषण मिल गया, धन्य हुए रघुनाथ।।


कृष्ण सुदामा थे सखा, जग में है विख्यात।
बड़ भागी को ही मिले, ऐसी प्रिय सौगात।।


संकट में जो साथ दे, उसको साथी मान।
राह दिखाए सत्य की, जग में हो सम्मान।।


साथी मेरे हैं कई, सच्चा नहि है एक।
फूक-फूक कर चल रहा, मन में लिए विवेक।।


कड़वी बोली भी भली, जो हो सच्चा मित्र।
सत पथ गामी हम रहें, बनता दिव्य चरित्र।।


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*** मुरारि पचलंगिया

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...