Sunday 29 January 2017

गणतन्त्र दिवस पर दोहे



अंग्रेज़ों की लीक पर, बहुत चले मजबूर।
रीति नीति की ज्योति अब, संवैधानिक नूर।।


संविधान सर्वोच्च है, समरसता सम्मान।
लोकतंत्र में लोकहित, प्रहरी इसको जान।।


पढ़ें हमीं ने आदि से, सकल सृष्टि सोपान।
मंगल ग्रह भी कह रहा, भारत देश महान।।


कुर्बां अपने देश पर, क़तरा-क़तरा खून।
ज़र्रे-ज़र्रे में यहाँ, जज़्बा जोश जूनून।।


निर्भय हो कर नाचता, गुलशन में हर ओर।
भ्रष्ट्र व्यवस्था पाँव त्यों, लोकतंत्र ज्यों मोर।।


कह देगी मजबूर हो, दुनिया देर सबेर।
भारत अब चिड़िया नहीं, है सोने का शेर।।


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आर. सी. शर्मा "गोपाल"

Sunday 22 January 2017

घनाक्षरी छंद




गली गली गूँजें शोर, दिखे नहीं ओर छोर,
खिल खिल गई अब, कली कली मन की।
फिर से चुनाव आये, नेताओं के मन भाये,
हुई पूछ फिर से है, आज जन जन की।
छुटभय्ये नेता जी भी, मजमा लगाने लगे,
गणना करे है देखो, वोट रूपी धन की।
चरण पकड़ लगी, होने अब मनुहार,
तज डाली अब सारी, बात अनबन की।।

निकट बसंत सखी, मन में उमंग जगी,
भँवरे लो आ गए हैं, चूमने कली कली।
दिखने लगी है चहुँ, ओर अब हरियाली,
खिलने लगे है फूल, देखिये गली गली।
ननदिया का संदेसा, मिला जबसे है मोहे,
पिहरवा छोड़ मैं तो, सासरे चली चली।
तन मन में मदन, अगन लगाने लगे,
सुरतिया पिया तौरी, लागे है भली भली।।



गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी

Sunday 15 January 2017

चूम रहे माथे से रेत (आल्हा छन्द)



धर्म मानता खेती को ही, लिए फावड़ा जोते खेत
बैलों की जोड़ी को पूजे, सोना उगले जिसकी रेत

बूँद-बूँद को आज तरसते, खाली अब सारे नल-कूप 
शहरों ने जब पाँव-पसारे, उजड़ गए खेतों के रूप

शीत काँपता था जिससे ही, दबा वही अब आज किसान
आतप ठण्डा पड़ जाता था, बिगड़ गये उसके दिनमान
खेत उगलता सोना जिसका, भूखों मरता वह इंसान
सदा उदर दुनिया का भरता, क्यों रूठे उससे भगवान


हृदय सभी का विचलित दिखता, भारी मन से हुए उदास
गाँव चला ले झोले झंडे, हुआ गाँव का यहाँ विनाश
देख बिखरते सपने सबके, उजड़ गये जब सारे खेत
रुके न आँसू चलते चलते, चूम रहे माथे से रेत


  ***** लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

Sunday 8 January 2017

कह-मुकरियाँ


1

 
रात दिवस वह मुझे सताता,
फिर भी मुझे लगे सुखदाता।
बिस्तर में बीता पखवाड़ा,
ऐ सखि साजन? नहिं सखि! ‘जाड़ा’।।


2

 
ओढ़ रजाई जब छिप जाती,
तब उससे कुछ राहत पाती।
मौका मिलते करे कबाड़ा,
ऐ सखि साजन? नहिं सखि! ‘जाड़ा’।।


3

 
उसके बिन कटतीं नहिं रतिंयाँ,
लगा रखूँ मैं उसको छतिंयाँ।
सर्दी की वह लगे दवाई,
ऐ सखि साजन? नहीं ‘रजाई’।।


4
 
दिन में कुछ राहत मिल पाये,
रातों को वह बहुत सताये।
तनिक न रहम करे ‘बेदर्दी’,
ऐ सखि साजन? नहिं सखि! ‘सर्दी’।।


***** हरिओम श्रीवास्तव

Monday 2 January 2017

नववर्ष पर दो रोला छंद


(1)

बदले देश समाज, करें सब पूरे सपने।
बनें सभी सरताज, चलें पर बनकर अपने।
मिटे भूख आतंक, ख़ुशी हो ग़म पर भारी।
नए वर्ष में रोज़, दिखे दुनिया अति न्यारी ।।


(2)


मिटे हृदय से द्वेष, बढ़े नित भाई -चारा।
नए साल में एक, यही पैगाम हमारा।
सब हों मालामाल, मुसीबत दूर भगाए।
आने वाला साल, ख़ुशी सब लेकर आए।।


***** डाॅ. बिपिन पाण्डेय

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...