Sunday 25 September 2016

पीले बादल



बादल पीले हो गए, कैसी यह तस्वीर।
वृक्ष अकेला है खड़ा, ज्यों फूटी तकदीर।।
ज्यों फूटी तकदीर, कि जैसे कुदरत रूठी।
तौबा हर शै आज, मुझे लगती है झूठी।
कहे रजत घबराय, कभी थे नीले नीले।
जाने क्या है राज़, हुए जो बादल पीले।।
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*** गुरचरन मेहता 'रजत'

Sunday 18 September 2016

एक गीत - मेरा दिल क्या कहता है



चुप सजदे में रहता है, 
मेरा दिल क्या कहता है ?

काँटों से ख़ुश हो खेला,
गहरे घावों को झेला

नादानी बस है ओढ़ी,
दिखता सबको अलबेला


सब रंज़ो-ग़म सहता है,
मेरा दिल क्या कहता है?


जब भी है जिसपे आया,
उस आशिक ने भरमाया

जब चाहा दिल से खेला,
जी ऊबा तो ठुकराया


कुछ भीतर भी ढहता है,
मेरा दिल क्या कहता है?


पूछे, किसकी सुनते हो?
जब भी सपने बुनते हो

टूटा मैं ही करता हूँ,
ऐसे पत्थर चुनते हो


रिस रिस लावा बहता है,
मेरा दिल क्या कहता है ?


***** मदन प्रकाश

Sunday 11 September 2016

आल्हा छंद



बुद्धिराज, गणराज विराजे, वर माँगें सब शीश नवाय।
चढ़े प्रसादी मोदक, केला, खूब मज़े से 'मुसवा' खाय।।
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एकदंत की महिमा न्यारी, नर- नारी सब करें बखान।
बड़े दुलारे शिवशंकर के, मैया पारवती की जान।।
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नहीं किसी को चैन जगत में, घर-घर में नाना जंजाल।
सबकी यही अपेक्षा होती, गणपति कर दें मालामाल।।
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कुछ आयोजक अति उत्पाती, माँग रहे चंदा धमकाय।
झूमें-नाचें ख़ूब नशे में, फूहड़ गाने रहे बजाय।।
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नहीं शुद्ध मन से करते हैं, लोगबाग अब तो शुभ काज।
नैतिकता का हुआ पतन है, 'राज' अनैतिक आज समाज।।


***** राजकुमार धर द्विवेदी

Sunday 4 September 2016

क्या है ज़िन्दगी? - एक गीत




जाने क्यूँ हर रिश्ता मुझको बेगाना सा लगता है
फूलों की ख़ुशबू से माली अनजाना सा लगता है


कभी सुखों से झोली भरती
कभी दुखों से गागर
प्यासा हर इंसान यहाँ पर
प्यासा प्यासा सागर
कभी गुनगुनी लगे ज़िंदगी 
कभी धूप सी तीखी
कभी नीम सी और कभी यह
लगती सुधा सरीखी

जाने क्यूँ हर आँगन मुझको वीराना सा लगता है
फूलों की ख़ुशबू से माली अनजाना सा लगता है

इक दिन पंछी उड़ जाते हैं
आसमान में ऊँचे
याद नहीं रहते फिर उनको
वो बचपन के कूँचे
वृक्ष अकेला रह जाता है
मृत्यु नहीं पर आती
गिन-गिन कर साँसे वो लेता
जान न लेकिन जाती

सजा हुआ ईंटों का घर भी बुतखाना सा लगता है 
फूलों की ख़ुशबू से माली अनजाना सा लगता है

दर्पण में ख़ुद को देखो तो
कमी न देखी जाती
प्रीत अगर सच्ची आँखों में
नमी न देखी जाती
सूरत इक दिन बिगड़ेगी, जो
लगता रूप सलोना
मन से मन जो मिल जाए तो
समझो सच्चा सोना

डाली का भी पत्ता-पत्ता दीवाना सा लगता है
फूलों की ख़ुशबू से माली अनजाना सा लगता है
 
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***** गुरचरन मेहता "रजत"

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...