Sunday 31 July 2016

सावन आ गया है


मस्ती भरी कजरी छेड़ दे री सजनी, कि सावन आ गया है

साँवरे के रूप-सी छा रही काली घटाएँ,
संदेशा पिया का ला रही पुरवा हवाएँ,
सोलहों सिंगार कर ले अरी बावरी, कि सावन आ गया है


नाचती बूँदों के संग-संग पायल छनक उठी,
कलाई पर अनजाने ही ये चूड़ी खनक उठी,
मदहोश- सी नाच रही वन में मयूरी, कि सावन आ गया है


हरी चुनरिया ओढ़ कर ये धरा भी झूम रही,
मदमत्त-सी लता भी तरु का मुखड़ा चूम रही,
ओ री सखि मैं भी हो चली बावरी, कि सावन आ गया है


मस्ती भरी कजरी छेड़ दे री सजनी, कि सावन आ गया है

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***** बिहारी दुबे

Sunday 24 July 2016

एक रचना - उदास मत करना


दिल को यूँ ही उदास मत करना।
किसी से कोई आस मत करना। 


ज़मीर से सच नहीं छिपा करता।
झूठ से जीत की आस मत करना।


फ़रेब फ़ितरत है इन बहारों की।
यक़ीन इनका ख़ास मत करना। 


क़त्ल ईमान का अगर ज़रूरी हो।
दिल के आस पास मत करना।


ज़िन्दगी बहते लम्हों का दरिया है।
किनारे से कोई क़यास मत करना।


*** संजीव जैन

Sunday 17 July 2016

~~~तेरा जाना~~~


 
अरे !
तुम तो चले गए थे न
मुझे छोड़कर,
मुक्त हो गए थे
सारे बंधन तोड़कर,
या शायद किसी और
परम प्रिय से
नाता अपना जोड़कर


एक पल में धराशायी हो गए
सुनहरे सपनों के स्वर्ण महल,

हाँ, मैं लड़खड़ाई थी
पर गिरी नहीं थी,
मैंने संभाल लिया था खुद को,
बहला लिया इस दिल को,
फुसला लिया अपने आंसुओं को,
और सुला दिया
पलकों के नरम बिछौनों में


पर यूँ चले जाना
शायद
तुम्हारी ख़ुदगरज़ी नहीं,
उसकी मर्ज़ी थी,
नियति का खेल ही था ज़रूर
जो तुम्हें भी न था मंजूर
,
तभी तो रोज़ चले आते हो
एक मीठा सा एहसास बनकर
कभी कोई प्यारी सी आस बनकर
और कभी ख़ुद पे विश्वास बनकर

और रोज़ शोर मचाते हो
दिल की मुंडेर पर
याद का काग बनकर


***** निशा

Sunday 10 July 2016

ईद पर चार कह मुकरिया




1.
 

पाक मास रमजान रवाना,
तभी हुआ फिर उसका आना,
मैं तो उसकी हुई मुरीद,
क्या सखि साजन ? ना सखि 'ईद'

 
2.
 

रोज़े रखकर उसको पाया,
उसने मुझको गले लगाया,
उससे लगी बड़ी उम्मीद,
क्या सखि साजन ? ना सखी 'ईद'

 

3.
 

उसका आना ख़ुशियाँ लाया,
गिले दूर कर गले लगाया,
उसने आज उड़ा दी नींद, 

क्या सखि साजन ? ना सखि 'ईद'

4.
 

जब भी होता उसका आना,
मौसम लगने लगे सुहाना,
विपदायें हो जाये रसीद,
क्या सखि साजन ? ना सखि "ईद"


**हरिओम श्रीवास्तव**

Sunday 3 July 2016

दो नावों पर पैर


"मैं"
होता है सवार
सदैव ही दो नावों पर
और - समझता है श्रेष्ठ
"मैं" मैं को ही,
कर्म और भाग्य के आडम्बर
ओढ़ लेता है कभी
योग में भोग
कर लेता है सार्थक
गढ़ता है अपनी ही सूरत
अपने ही हाथ
स्थापित करता है अहं के स्मारक,
चाहता है अहं
ताजपोशी
रंगे सियार सरीखा
और बना रहता है सदैव केंचुआ
बरसाती मेंढक के साथ,
होकर सवार दो नाव पर
बेच देता है जीवन और आयु
सड़ांध के ढेर पर
मानवता के नाम
लिख देता है
एक अमिट ......... अभिशाप !


  *** गोविंद हाँकला

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...