Saturday 28 May 2016

तीन दोहा मुक्तक

 
नीर-क्षीर सी प्रीति हो, दोनों हो समभाव,
स्वार्थ खटाई के पड़े, पैदा हो बिलगाव,
चार दिनों की जिंदगी, कहते वेद पुराण,
दो दिन जाय समेटते, दो दिन का बिखराव
।1


नीर-पंक से विलग वो, यद्यपि जन्में माँझ, 
अचल अमल मन कमल बन, होने आई साँझ,
चेहरे की आभा रहे, तन पर बरसे नूर,
श्वाँस वास हरि-भजन हों, बजे मँजीरा झाँझ।2। 


वृक्षारोपण कर जरा, पाटे मत तालाब,
तन मन झुलसेगें सभी, बचा नाहीं जो आब,
नदियाँ घटती जा रहीं, जल पहुँचा पाताल,
कुदरत से मत खेल तू, स्वारथ अपने दाब।3। 


*** गोप कुमार मिश्र

Saturday 21 May 2016

मौन - एक कविता



शब्द करते शोर जब भी, कर्ण पर व्यभिचार,
शब्द होते मौन जब भी, भावना का ज्वार
। 


साँस चलना बंद हो जब, मौन हो आवाज,
ख़त्म होता वक़्त तो फिर, शब्द जाते हार।


आँख से हो बात जब भी, चुप्पी साधे शब्द,
गुप्त होती बात जब भी, तीसरा लाचार।


आपकी आवाज़ सुनकर, ताव खाते लोग,
शब्द होते शोर में ही, अर्थ से बेकार।


शब्द पकड़े सीखते हैं, छात्र देखो अर्थ,
शोर में ही खो रहे हैं, शब्द का आधार।


शोर गुल जब हो अधिक तो, शब्द होते लोप,
ध्यान से जो सुन रहे थे, वे सभी लाचार।


न साधे योग होता, मौन में आनंद,
साधना हो मौन रहकर, मौन में ही सार। 


*****लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

Saturday 14 May 2016

सिंहस्थ कुम्भ महापर्व पर दोहे




पापी मन तू चेत ले, रखा न हरि का ध्यान
आई अब है शुभ घड़ी, कर ले पावन स्नान।1
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मेला है सिंहस्थ का, छलका अमृत नीर

लालायित सब लोग हैं, बैठे क्षिप्रा तीर
।2
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गुरु का बंधु प्रवेश जब, सिंह राशि में होय

तब लगता सिंहस्थ है, पूर्ण मनोरथ होय
।3
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क्षिप्रा के तट पर भई, साधु-सन्त की भीड़

भोले के दर्शन करो, मन -पंछी तज नीड़
।4। 
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हरिद्वार को सब कहें, सदा मोक्ष का द्वार।
महापर्व सिंहस्थ में, हो जाये उद्धार।।5
। 

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***** गुप्ता कुमार सुशील 'गुप्तअक्स'

Saturday 7 May 2016

दुर्मिल सवैया


(चार चरणों के इस वर्णिक दुर्मिल सवैया छंद के प्रत्येक चरण में 8 सगण [अर्थात् लघु लघु गुरु, I I S] होते हैं)
 
गिरि खोह कदम्ब न डाल मिले तट खोज लये यमुना सगरे।
जल में थल में नभ में न मिले चट ढूँढ लये जग के मग रे।
वृषभान लली रुकि पूछ रहीं पट मोहि बता मग तू खग रे।
पट साँकल लाज हटा झट से मन मोहन तोर लसे दृग रे
।।1।।


झट दीन्ह हटा जब लाज छटा गरजी घन घोर घमण्ड घटा।
चट जोर हिलोर उठी उर में सुर का सगरा अनुबंध कटा।
बिजुरी दमकी नभ में चतुरी अधरों बिच कंपन अंध सटा।
नभ बूँद गिरी पपिहा मुख में अरु मावस पावस चाँद छटा।।2।।


चिदानन्द "संदोह "

Sunday 1 May 2016

एक चतुष्पदी - तुम डाल-डाल हम पात-पात



 
कर लो तुम कितना तीन पाँच, जितने भी चाहो करो घात,
आया जब ऊँट पहाड़ तले, तब शेष बची फिर कौन बात,
मिल ही जाता है सवा सेर, यह बात कहें ज्ञानी ध्यानी,
ना दे पाओगे मुझे मात, तुम डाल-डाल हम पात-पात।।


**हरिओम श्रीवास्तव**

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...