Monday 25 April 2016

नज़र




ले इश्क़ की फ़रियाद को थी फिर रही गुम सी नज़र
इक बार तुमपे जो टिकी तो फिर कहाँ बहकी नज़र


अपने लिबासों में सदा दिखती रही बेपर्दगी
फिर पैरहन सी रूह पर हमने तेरी पहनी नज़र


डर से बरी ही कर दिया मैंने उसे इलज़ाम से
जाने न क्या स्वीकार ले यूँ सामने झुकती नज़र


इस कोख के जाये कभी तो लौट घर-आँगन मिलें
रस्ता तके दहलीज पर खोयी हुई बूढ़ी नज़र


हर रात थोड़ी कालिमा सपनों के गालों पर रची
जाये न लग दुर्योग से उनको कहीं मेरी नज़र


वो चाँद दिखता फिर क्षितिज पर ख़ूब मुस्काता हुआ
उस चाँद में सूरत तेरी दिलदार को आती नज़र


***** मदन प्रकाश

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