Monday 29 February 2016

एक पंथ दो काज

 


हम सुधरें तो स्वतः सुधरे समाज
ऐसे सिद्ध हों एक पंथ दो काज 


व्यक्ति व्यक्ति रहे प्रेम से हिल मिल
आपसी विश्वास चमके झिलमिल
परिवार बनें सौम्य बरसे सुख सरस
वैमनस्य का हो जाये समूल नाश
प्रेममय हो जाये सकल समाज
ऐसे सिद्ध हों एक पंथ दो काज 


न घूस दें न घूस लें का प्रण करें पूरा
किसी का भी सपना न रहे अधूरा
कर कड़ी मेहनत दरिद्रता को भगायें
आओ भ्रष्टाचारियों की बाट लगायें
साफ़ सुथरा हो जाये सकल समाज
ऐसे सिद्ध हों एक पंथ दो काज


बेटा हो या बेटी स्वागत करें दिल से
क्रूरता को त्याग कहीं फेंक दें दिल से
समानता से संस्कार-परवरिश दें
दोनों को ही सशक्त इंसान बना दें
संतुलित हो जाये सकल समाज
ऐसे सिद्ध हों एक पंथ दो काज 


काम क्रोध मद मोह लोभ को भगा
संतोष शान्ति क्षमा को गले लगा
धर्म सम्प्रदाय के झगड़ों को मिटाकर
मानवता की सुरभि चहुँ ओर फैलाकर
समतामय हो जाये सकल समाज
ऐसे सिद्ध हों एक पंथ दो काज 


हम सुधरें तो स्वतः सुधरे समाज !
ऐसे सिद्ध हों एक पंथ दो काज !!


**** डॉ. अनिता जैन "विपुला"

Sunday 21 February 2016

मौसम


 
गहरी आँखों से काजल चुराने की बात न करो।
दिलकश चेहरे से घूँघट उठाने की बात न करो।।


सावन है बहुत दूर ऐ मेरे हमदम मेरे हमसफ़र।
बिन मौसम ही यूँ तुम सताने की बात न करो।।


इंतज़ार ही किया तुम्हारा हर मुलाक़ात के लिए।
ऐसे में फिर तुम अपना जताने की बात न करो।।


प्यार के परिंदे बन उड़ना ही अच्छा इस जहाँ में।
ज़ालिम है ज़माना घर बसाने की बात न करो।।


जहाँ चलती हो प्रेम के विपरीत खूब आँधियाँ ।
वहाँ फिर प्यार की शमाँ जलाने की बात न करो।।


***** "दिनेश"

Sunday 14 February 2016

नव भोर

 


है डूब रहा
सूरज,
ढल रही शाम,
हुआ सिंदूरी आसमान,
ऐसी चली हवा
ले उड़ी संग अपने
पत्ता पत्ता,
छोड़ अपना अस्तिव
टूट कर बिखर गये,
चले गये सब जाने कहाँ,
देख रहा खड़ा अकेला
असहाय सा पेड़,
सूनी सूनी शाखायें
कर रही इंतज़ार
नव बहार का,
होगा फिर फुटाव
नव कोपलों का,
होंगी हरी भरी
डालियाँ फिर से,
उन पर
खिलेंगे फूल फिर से,
आयेंगी बहारें फिर से,
होगी नव भोर फिर से,
उड़ेंगे
नीले अम्बर पर पंछी फिर से,
सात घोड़ों से
सजेगा रथ दिवाकर का,
नाचेंगी अरुण की रश्मियाँ,
मुस्कुराती रहेगी ज़िंदगी
बार बार


*** रेखा जोशी

Sunday 7 February 2016

सावन हरे न भादो सूखे


हमरे खातिर तो सावन हरा ना भादो सूखा,
यहाँ तो रहना पड़ता है झोपड़ियों को भूखा


मेले का मन मचल कहता है मेला जाने को,
धेले का तन हरख सहता है आने आने को,
खेत खलिहानों वाली बतियाँ भूली गाने को,
सारे पखेरू चुगने आये घर अपने ही दाने को,
लेकिन हाल हुआ है मिलता नहीं सूखा रूखा


पासे फेंक रहा शकुनि चौपट चौपड़ पासा है,
कौरव पांडव चाल चल रचते देखो झांसा है,
काँप रहे अनुभव यहाँ सबकी पोपट भाषा है,
आशा के निज कर लागि लुटने गौरव आशा है,
घाव हरे हंसते देखा यह कवि मन दूखा है


- गोविन्द हाँकला

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...