Sunday 30 August 2015

मज़मून - 68


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-- कह-मुकरी --
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वह जब आये मन हर्षाये,
ढेरों खुशियाँ सँग में लाये,
उससे बँधा प्रेम का बंधन,
क्या सखि साजन ? न 'रक्षाबंधन'!!


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दोहे-
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रंग-बिरंगी राखियाँ, झिलमिल हैं बाजार।
मन को अति पुलकित करे, राखी का त्योहार।।1।।


भैया तेरी याद में, बहना है बेहाल।
राखी बँधवाने यहाँ, आ जाना हर हाल।।2।।


कच्चे धागे में बँधा, बहना का ये प्यार।
माँगे भाई के लिये, खुशियों का संसार।।3।।


भैया कभी न छोड़ना, संकट में तुम साथ।
इसी आस विश्वास से, तिलक लगाया माथ।।4।।


**हरिओम श्रीवास्तव**

Sunday 23 August 2015

कुण्डलिया छंद


लोकोक्ति" *एक और एक ग्यारह" * पर
एक कुण्डलिया छंद 


मिलकर साधे काम सब, सधे सभी के काम।
एक और एक ग्यारह, ताकत का आयाम।।
ताकत का आयाम, शक्ति को हम पहचाने।
चले वक्त के साथ, साथ की ताकत जाने

लक्ष्मण करना काम, कभी न अकेले पिलकर

मन में हो सद्भाव, साध ले सारे मिलकर
।।


-लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

Sunday 16 August 2015

पाँच दोहे


बही जा रही है हवा, मेघों को ले साथ।
किस बंजर पर खुश हुए, बाबा भोलेनाथ।।1।।


बहती पागल सी पवन, लाती क्या-क्या बीन।
खुशियाँ लाती है कभी, कभी जिंदगी छीन।।2।।

 
मस्त हवा ने छेड़ दी, प्यारी सी इक तान।
सुनकर सावन का मधुर, प्यार भरा आव्हान।।3।। 


त्याग और बलिदान की, लेकर गंध समीर।
गुजरी है जिस द्वार से, दिखे वहीं नम चीर।।4।। 


वीरों को करती पवन, शत-शत आज प्रणाम।
नस-नस में जिनकी बहा, सदा वतन का नाम।।5।। 


~ फणीन्द्र कुमार ‘भगत’

Sunday 9 August 2015

एक चतुष्पदी

 
लिखा हाथों में सखियों ने हिना में नाम तेरा है;
महकती मेरी साँसों की, सदा में नाम तेरा है।
सजन मेरे मुझे लेने, सजा डोली चले आओ;
शहर दुल्हन बना मेरा; फ़िज़ां में नाम तेरा है।


*** दीपशिखा

Sunday 2 August 2015

पर उपदेश कुशल बहुतेरे


कथा बाँचते एक दिन, पंडित गोप कुमार
बैंगन के अवगुन कहे, मुख से बारमबार


बडी मुसीबत तब हुई, जब घर पहुँचे आय
पंडितानी ने शुद्ध मन, खाना दिया लगाय


आग- बबूला हो गये, थाली रहे निहार
भाग्यवान बैंगन बिना, खाना सब बेकार


भागवान बोली तभी, ठहरे आप सुजान
अब बैंगन घर ना बने, रखूँ कथा तव मान


घर के बैंगन और है, कथा व्यथा के और
इतना भी समझी नहीं, करती क्यूँ बरजोर


समझ गयी सब बात मैं, कही अनकही खास
समझी तो मैं आज हूँ, कथनी तुलसी दास

कि
पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहि ते नर न घनेरे


*** गोप कुमार मिश्र*** 

छंद सार (मुक्तक)

  अलग-अलग ये भेद मंत्रणा, सच्चे कुछ उन्मादी। राय जरूरी देने अपनी, जुटे हुए हैं खादी। किसे चुने जन-मत आक्रोशित, दिखा रहे अंगूठा, दर्द ...