Saturday 7 November 2015

दीप जलाऊँ


हर दिशा में तम गहराया,
इतने दीप कहाँ से लाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ।


एक भावना के आँगन में,
एक साधना के आसन पर,
एक उपासना के मंदिर में,
एक सत्य के सिंहासन पर,
बनूँ मैं माटी किसी दीप की,
और कभी बाती बन जाऊँ,

जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ,


एक दिल के तहखाने में भी,
स्वप्निल तारों की छत पर भी,
एक प्यार की पगडण्डी पर,
खुले विचारों के मत पर भी,
जलूँ रात भर बिना बुझे मैं,
तेल बनूँ तिल तिल जल जाऊँ,

जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ


एक दोस्ती की बैठक में,
एक ईमान की राहों पर भी,
एक मन की खिड़की के ऊपर,
एक हंसी के चौराहों पर भी,
दीप की लौ है सहमी-सहमी,
तुफानों से इसे बचाऊँ,

जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ


बचपन के गलियों में भी एक,
और यादों के पिछवाड़े में भी,
अनुभव की तिजोरी पर एक,
और उम्र के बाडे में भी,
बाती की अपनी सीमा है,
कैसे इसकी उम्र बढ़ाऊँ,

जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ


हार है निश्चित अंधेरों की,
जग में एेसी आस जगाऊँ,
सुबह का सूरज जब तक आये,
मैं प्रकाश प्रहरी बन जाँऊ,
हर दिशा में तम गहराया,
इतने दीप कहाँ से लाऊँ,

जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ


-: संजीव जैन:-

2 comments:

  1. Sir aapki ye poem muje wats up k jariye mili, mushe kafi pansand aayi hahi, har shabd k mayne ak dum saaf aur prerna dayak hai.. shubh diwali 2018,

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत-बहुत आभार आदरणीय।

      Delete

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...