Sunday 25 October 2015

जय माँ अम्बे

 
शत-शत नमन करूँ तुझको माँ, तू ही भाग्यविधाता
अपने चरणों में रहने दे, कृपा करो हे माता


जिसने तुझको शीश नवाया, शरण तिहारी आया,
उसने सारे कष्ट बिसारे, सुख का जीवन पाया,
ध्याता है वह तुझको निशदिन,तेरे ही गुण गाता,
अपने चरणों में रहने दे, कृपा करो हे माता


जब शिव का अपमान हुआ माँ , तूने धुनी रमाई,
शैलराज के घर माँ जन्मी, शैल सुता कहलाई,
हर नारी में माँ दृढ़ता का, बल तुझसे ही आता,
अपने चरणों में रहने दे, कृपा करो हे माता


कालरात्रि बन माता तूने, हर अँधकार मिटाया,
सारे जग को दे दी सुख की, माता तूने छाया,
तेरा ही है शक्ति रूप में, हर नारी से नाता,
अपने चरणों में रहने दे, कृपा करो हे माता


~ फणीन्द्र कुमार ‘भगत’

Sunday 18 October 2015

एक चतुष्पदी





उलझी सी जीवन राहों में गिर-गिर के संभलना सीख लिया,
कलियों की तमन्ना दिल में लिए काँटों पे चलना सीख लिया,
शिकवा या गिला कुछ भी तो नहीं हमको अपनी परेशानी से,
घुट-घुट के तड़पती आहों ने हँस-हँस के जलना सीख लिया।

  
*** विश्वजीत शर्मा 'सागर'

Sunday 11 October 2015

एक चतुष्पदी

 
पाषाणों की इक कारा में, तरु का एकल साया है;
खण्डित से मन्दिर में आकर, रवि ने दीप जलाया है।
करके वीराँ इंसाँ ने तो, छोड़ दिया, फितरत उसकी;
नभ ने सरसा के मेह यहाँ, जल अभिषेक कराया है।


*** दीपशिखा

Sunday 4 October 2015

एक दिन की रोटी



बचपन में देखता था,
एक लहराती बलखाती सापिन सी
पगडण्डी जाती हुई,
ऊपर दलमा की पहाड़ी पर
जाते थे उसके साथ
उन आदिवासियों के
जज्बात,
जिजीविषा की सौगात

शैल शिखर पर
बसी वो जनजाति
आधुनिकता से दूर
अपनी पहचान की मोहताज
अपने अस्तित्व को सँवारती 

कीड़ों-मकोड़ों को
खाने को मजबूर,
तोड़कर केंदु के पत्ते
कुसुम के फल चिरौंजी के दाने
गुजर बसर को
वही किस्से पुराने
 
पर्वत बालायें कर्मठ, मेहनतकश
सर पर ढोती
मीलों लकड़ी के गट्ठर
शायद एक दिन की
रोटी मिल जाय


***** सुरेश चौधरी

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...