Sunday 27 September 2015

दुर्मिल सवैया

"अधजल गगरी छलकत जाए"
 
लघु ज्ञान मिले इतराय सखी, सब मान सुजान घटाय रहे।
अब छाप अँगूठ डटे पद पे,अरु साक्षर पाठ पढ़ाय रहे।
बन नीम हकीम फिरा करते, खतरे महिं जान डलाय रहे

अब पंडित वो समझें खुद जो,कल ज़िल्द किताब बँधाय रहे।


पढ़ चार किताब महान गुणी, कवि वो खुद को बतलाय रहे
नित भाषण वेद ऋचा पर दें, कमियाँ उनकी गिनवाय रहे।
कछु ज्ञान नहीं कछु भान नहीं, नित नीति नई बनवाय रहे
गगरी जल की भरते अधिया, छलकाय रहे ढुरकाय रहे।


*** दीपशिखा सागर

Sunday 20 September 2015

पाँच दोहे चित्र आधारित



देखन में सुंदर लगें, ये घन पूर्ण सफेद।
हम बारिश करते नहीं, कहते श्वेत सखेद।।
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काले बदरा नीर ले, कहीं गए हैं रेंग।
उनकी बाट न जोहिए, दिखा दिए हैं ठेंग।।
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बिन पानी इस साल तो, फसल गई मुरझाय।
व्यापी चिंता कृषक में, तनिक न निद्रा आय।।
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गाँव छोड़ अब जा रहे, लेकर पेट मजूर।
बचे हुए जो गाँव में, वे हैं अति मजबूर।।
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राजनीति नेता करें, साहब हैं खुशहाल।
हालत पतली देश की, जनजीवन बदहाल।।


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***** राजकुमार धर द्विवेदी

Sunday 13 September 2015

पाँच - हाइकु



उजालों में भी,
पलते हैं अंधेरे;
दीपक तले । 


उजाले देता,
मुफलिसी में जीता;
अंधेरे पीता । 


जलता रहे,
तिमिर से लड़ता;
मिट्टी का दीया । 


दीप लघु हूँ,
अंधेरों को पीता हूँ;
तन्हा जीता हूँ ।


मुँह अंधेरे,
कचरे में ढूँढता;
पेट की रोटी । 


*** डॉ. रमा द्विवेदी

Sunday 6 September 2015

जनक


शीश नत मैं विनत सेवक, हे जनक स्वीकार हो,
नमन बारंबार मेरा, नमन बारंबार हो

आप थे सारा जहां था, मुट्ठियों में दास की,
आपके बिन यूँ लगे, ज्यों ज़िन्दगी धिक्कार हो

है ज़मी ज़र, शान भी है, मान भी बेहिस मिला,
पर पिता के वक्ष सा, क्या दूसरा आधार हो?
थाम कर जिस तर्जनी को, हम चले पहला कदम,
आज भी सबलम्ब बनती, राह जब दुश्वार हो

आर्त वाणी राम की सुन, ज्यों प्रकट दशरथ हुये,
पार्श्व में पाता सदा, हालात से दो-चार हो
 

भूल मैं पाता नहीं, व्याकुल नयन करुणा भरे,
जो विदाई के समय, झर-झर बहे लाचार हो
 

बन पिता मैं जान पाया, अब पिता की पीर को,
हो बिलग संतान से, लगता लुटा संसार हो
 

मैं अभागा पेट की खातिर, वतन से दूर था,
दे न पाया आग भी, जिसने दिया आगार हो
 

राज रानी सी ठसक, माँ की नदारद हो गई,
हो न कैसे भाल से, जिसका पुछा शृंगार हो?
चाह है संतति में देखूँ, अक्स हर पल आपका,
इस बहाने ही सही, संताप का उपचार हो
 

हे परम गोलोक वासी, आपको सद्गति मिले,
मोक्ष की है कामना, बस आपका उद्धार हो


*** छात्र पाल वर्मा ***

छंद सार (मुक्तक)

  अलग-अलग ये भेद मंत्रणा, सच्चे कुछ उन्मादी। राय जरूरी देने अपनी, जुटे हुए हैं खादी। किसे चुने जन-मत आक्रोशित, दिखा रहे अंगूठा, दर्द ...