कथा बाँचते एक दिन, पंडित गोप कुमार।
बैंगन के अवगुन कहे, मुख से बारमबार।।
बडी मुसीबत तब हुई, जब घर पहुँचे आय।
पंडितानी ने शुद्ध मन, खाना दिया लगाय।।
आग- बबूला हो गये, थाली रहे निहार।
भाग्यवान बैंगन बिना, खाना सब बेकार।।
भागवान बोली तभी, ठहरे आप सुजान।
अब बैंगन घर ना बने, रखूँ कथा तव मान।।
घर के बैंगन और है, कथा व्यथा के और।
इतना भी समझी नहीं, करती क्यूँ बरजोर।।
समझ गयी सब बात मैं, कही अनकही खास।
समझी तो मैं आज हूँ, कथनी तुलसी दास।।
कि
पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहि ते नर न घनेरे।
*** गोप कुमार मिश्र***
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