मत पूछो यारो अब हमसे,
हम कैसे बदनाम हुए हैं।
बनी बनाई राहों पर हम,
चलने में नाकाम हुए हैं।
पीने वाले निकल गये सब,
मधुशाला के आँगन से।
प्याला मीना सुरा सुराही,
बस ऐसे बदनाम हुए हैं।
बनी बनाई राहों पर हम,
चलने में नाकाम हुए हैं।
सहमी लज्जा अगन बुझाती,
इज़्ज़त के शहज़ादों की।
अंधी गलियों के घर-घर में,
मजबूरी के दाम हुए हैं।
बनी बनाई राहों पर हम।,
चलने में नाकाम हुए हैं।
चमक दमक पर मत जाना,
इन ऊँचे-ऊँचे महलों की।
कभी तो भीतर झाँक के देखो,
कैसे - कैसे काम हुए हैं।
बनी बनाई राहों पर हम,
चलने में नाकाम हुए हैं।
अपने मतलब से ही दुनिया,
गलत सही कहती आयी है।
भक्ति भावना दर-दर भटकी,
पत्थर भी भगवान हुए हैं।
बनी बनाई राहों पर हम,
चलने में नाकाम हुए हैं।
*** संजीव जैन ***
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