ये शजर हर हाल में बढते रहे,
किन्तु हम बढ़कर भी बौने हो गए।
शहर की अमराइयों में आजकल,
आदमी के दाम पौने हो गए।
हमने बचपन खो दिया यूँ खेलकर,
पर बुढ़ापे में खिलौने हो गए।
पत्थरों की बस्तियों से टूटकर,
मिट्टियों के घर घिनौने हो गए।
जिनके कन्धों पे कभी थे झूलते,
आज झुँककर वो ढिठौने हो गए।
आसमाँ की एक चादर के तले,
रंज गम़ उल्फ़त बिछौने हो गए।
----------विद्या प्रसाद त्रिवेदी ---------
आदमी के दाम पौने हो गए।
हमने बचपन खो दिया यूँ खेलकर,
पर बुढ़ापे में खिलौने हो गए।
पत्थरों की बस्तियों से टूटकर,
मिट्टियों के घर घिनौने हो गए।
जिनके कन्धों पे कभी थे झूलते,
आज झुँककर वो ढिठौने हो गए।
आसमाँ की एक चादर के तले,
रंज गम़ उल्फ़त बिछौने हो गए।
----------विद्या प्रसाद त्रिवेदी ---------
बहुत बढ़िया ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया ।
ReplyDeleteसादर आभार आपका anil pathak जी.
Deleteनमन
आदमी के दाम पौने हो गये.....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया....
सादर आभार आपका hemant kumar manikpuri जी.
Deleteसादर नमन