Monday 27 July 2015

दबे पाँव आ गया कोई



मिरे ज़ेहन पे इस तरह से छा गया कोई,
कि गुल में जैसे महक सा समा गया कोई 


पुराने मौसमों की याद में गुम था मैं तो,
नए मौसम सा दबे पाँव आ गया कोई 


अक़्ल कहती है कि अब उसपे यकीं मत करना,
मगर यकीं की वज़ह दिल बता गया कोई 


वो शख़्‍स कौन था पलभर की मुलाक़ात ही में,
ज़ेहन से जैसे के पर्दा हटा गया कोई 


मुझे पढ़ना है वही चेहरा एक अर्से बाद,
मगर ये क्या, मेरा चश्मा छुपा गया कोई 


*** नरेन्द्र शर्मा ***

Sunday 26 July 2015

नदी का जल

 
नदी का जल
बादल की बूँद बन
बहता है घने जंगल की
डालियों पर
मुग्ध हो जाता है वह
एकाकार हो
जंगल झाँकने लगता है उसमें

साफ़ परिदृश्य
पाखी, तितली, हिरण और
अनछुई बदली
छू लेती है
नदी का अंतर्मन

जब नदी बर्फ हो
बूँद बूँद बन उड़ रही थी
तो भी नदी का रंग
श्वेत ही था
उड़ती भाप सा

नदी हमेशा से पाक
पवित्र थी,
जब गाँव गाँव भटकी
जब शहर घूमी
जब समुन्द्र से मिली
या फिर बादल बन ढली

बचा सको तो नदी का रंग
बदरंग होने से
तो नदी बनना होगा
तर्पण करना होगा

अपने आँख की
बहती अश्रु धारा बचानी होगी
जहाँ से फूटते हैं सभी
आत्मीय स्त्रोत।


*** मंजुल भटनागर ***

Sunday 12 July 2015

बद अच्छा बदनाम बुरा




मत पूछो यारो अब हमसे,
हम कैसे बदनाम हुए हैं 

बनी बनाई राहों पर हम,
चलने में नाकाम हुए हैं।


पीने वाले निकल गये सब,
मधुशाला के आँगन से।
प्याला मीना सुरा सुराही,
बस ऐसे बदनाम हुए हैं।
बनी बनाई राहों पर हम,
चलने में नाकाम हुए हैं।


सहमी लज्जा अगन बुझाती,
इज़्ज़त के शहज़ादों की।
अंधी गलियों के घर-घर में,
मजबूरी के दाम हुए हैं।
बनी बनाई राहों पर हम।,
चलने में नाकाम हुए हैं। 


चमक दमक पर मत जाना,
इन ऊँचे-ऊँचे महलों की।
कभी तो भीतर झाँक के देखो,
कैसे - कैसे काम हुए हैं।
बनी बनाई राहों पर हम,
चलने में नाकाम हुए हैं।


अपने मतलब से ही दुनिया,
गलत सही कहती आयी है।
भक्ति भावना दर-दर भटकी,
पत्थर भी भगवान हुए हैं।
बनी बनाई राहों पर हम,
चलने में नाकाम हुए हैं।


*** संजीव जैन ***

Sunday 5 July 2015

समय की चाल



ये शजर हर हाल में बढते रहे,
किन्तु हम बढ़कर भी बौने हो गए।


शहर की अमराइयों में आजकल,
आदमी के दाम पौने हो गए।


हमने बचपन खो दिया यूँ खेलकर,
पर बुढ़ापे में खिलौने हो गए।


पत्थरों की बस्तियों से टूटकर,
मिट्टियों के घर घिनौने हो गए।


जिनके कन्धों पे कभी थे झूलते,
आज झुँककर वो ढिठौने हो गए।


आसमाँ की एक चादर के तले,
रंज गम़ उल्फ़त बिछौने हो गए।


----------विद्या प्रसाद त्रिवेदी ---------

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...