Sunday 28 June 2015

व्योम पटल पर कवि सम्मेलन


व्योम पटल पर कवि सम्मेलन
मधुर मिलन चेतन अवचेतन


धरा पहन के चूनर धानी
तिलक-माल करती अभिनंदन
सप्त सुरो ने ज्योति जलायी
सतरंगी मयूर की ता धिन 


देख क्षितिज का महिमा मंडन
दंग रह गये सारे कविगन
बूँद-बूँद पग पायल बाँधे
बारिस रानी छम-छम नर्तन


गोप खुशी से लोप हो गया
देख घटा की छटा विलक्षन
पारिश्रमिक की होड़ नही है
तुलसी तिलक करें रघुनंदन


*** गोप कुमार मिश्र ***

Sunday 21 June 2015

घर की मुर्गी दाल बराबर पर दोहे





होती जब उपलब्धता, सतत और आसान
तब मुश्किल सी चीज भी, लगती दाल समान।।1।।

गजगामिन मृगलोचनी, सभी गुणों की खान
नित-नित घर में देखकर, समझें दाल समान।।2।।

बीबी के बिन एक दिन, लगता जैसे साल
फिर भी उनको ही कहें, घर की मुर्गी दाल।।3।।

घर बाहर जो देख लें, चिकनी चुपड़ी खाल
तब उनको लगने लगे, घर की मुर्गी दाल।।4।।

बाहर उनका रौब है, फिर भी एक मलाल
पत्नी उनको समझतीं, मुर्गी या फिर दाल।।5।।

बड़े दाल के भाव ने, किया हाल बेहाल
मुर्गी सस्ती हो गई, मँहगी है अब दाल।।6।। 

***हरिओम श्रीवास्तव***

Sunday 14 June 2015

तूने मुझे शर्मसार किया...


'पुत्रवती भव'
रोम रोम हर्षित हुआ था -
जब घर के बड़ों ने -
मुझ नव-वधु को यह आशीष दिया था -
कोख में आते ही -
तेरी ही कल्पनाओं में सराबोर!
बड़ी बेसब्री से काटे थे वह नौ महीने ...
तू कैसा होगा रे-
तुझे सोच-सोच भरमाती सुबह शाम!
बस आजा तू यही मनाती दिन रात ...
गोद में लेते ही तुझे-
रोम-रोम पुलक उठा था -
लगा ईश्वर ने मेरी झोली को आकंठ भर दिया था !!
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आज...
तूने... मेरी झोली भर दी !
शर्म से...
उन गालियों से-
जो हर गली हर मोड़ पर बिछ रही हैं...
उस धिक्कार से -
जो हर आत्मा से निकल रही है...
उस व्यथा से -
जो हर पीड़िता के दिल से टपक रही है...
उन बददुआओं से -
जो मेरी कोख पर बरस रही हैं!

मैंने तो इक इंसान जना था -
फिर - यह वहशी !
कब, क्यूँ, कैसे हो गया तू...

आज मेरी झोली में
नफ़रत है -
घृणा है -
गालियाँ हैं -
तिरस्कार है - जो लोगों से मिला -
ग्लानि है -
रोष है -
तड़प है -
पछतावा है -
जो तूने दिया !!!
जिसे माँगा था इतनी दुआओं से -
वही बददुआ बन गया !

तूने सिर्फ मुझे नहीं -
'माँ' - शब्द को शर्मसार किया...


***सरस दरबारी

Sunday 7 June 2015

एक नवगीत


मन बेचारा, यह आवारा, कहाँ हुई कुछ भूल
सपने बाँट रहे सन्नाटे, नींद हुई प्रतिकूल 


रात उनींदी, दिन अलसाए,
औंघाये पल-छिन,
घूँघट के भीतर गरमी से
अकुलाई दुलहिन,


निर्मोही अवगुंठन को ही गया उठाना भूल
देखा सुबह बिछौना उसपर बिछे हुए थे फूल


नदी पियासी सूखे पोखर
और हाँफते दिन
कब आयेंगे कारे बदरा
चेहरे हुए मलिन 


उमस भरी बदनाम गली को चर्चा नहीं कबूल
सूरज की नाराजी देखो, पकड़ न जाए तूल


____________________विश्वम्भर शुक्ल

Monday 1 June 2015

अफ़वाह



जलता था आपसी प्रेम सद्भाव का जो दिया
उड़ती सी एक ख़बर ने उसको बुझा दिया ।


न जाने किसने ख़बर इक ऐसी है उड़ाई;
मस्ज़िद ढहाने चले हैं हिन्दू भाई।


छोटी सी एक अफ़वाह ने ढा दिया कहर
दंगों की आग में जल उठा सारा शहर।


अल्लाह के बन्दे थे या भगवान के चेले,
थे खून से रँगे हाथ,लगे लाशों के मेले।


सच्चाई की तरफ न गौर किसी ने किया
हैवानियत का जाम भर भर पिया।


मस्जिद हुई विनष्ट, मंदिर दिया ढहा;
नफरत के दरिया में सारा शहर बहा।


रोती अज़ान अब सिसकती है आरती;
चुपचाप खड़ी आँसू बहाती माँ भारती।



*** दीपशिखा सागर ***

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...