Sunday 24 May 2015

खग जाने खग ही की भाषा

 


कोई माने या ना माने
खग की भाषा खग ही जाने


पी से पी के नैन मिले जब
लगते दोनों आँख चुराने 


दो पड़ोसन जब बतियाती
लगती इक-दूजे को जलाने 


नेता से जब नेता मिलता
लगता खुद को तोप बताने


श्वान, श्वान को जब भी देखे
लगता अपनी पूँछ हिलाने 


एक कवि जब कवि से मिलता
लगता अपना काव्य सुनाने


ऐसा जब उन्वान मिले तब
'सागर' लगता कलम चलाने 


कोई माने या ना माने ...
खग की भाषा खग ही जाने |


विश्वजीत शर्मा 'सागर'

Friday 22 May 2015

प्रकृति-न्यास


नीला आसमान
सहसा गुलाबी हो गया
तारे झिलमिलाने लगे
क्षितिज मुस्कुराने लगा
बादल कुछ गुनगुनाने लगे
आसमान के झरोखे से
नीचे झाँकता चाँद
कुछ रूमानी सा होने लगा
बहती हवाओं ने
जाने क्या घोला एहसासों में
ज़र्रा-ज़र्रा पानी पानी सा होना लगा
पूरी क़ायनात में एक स्वप्निल आभास था
फरिश्तों की चहलकदमी
महसूस कर रहा था दिल
लगता है फिर कहीं हारी है नफरत
प्रेम कहीं फिर उतरा खरा है
कुदरत का खज़ाना लुटकर भी भरा है
धरती का मन आज कितना
हरा है ....।।

 
~~निशा

Sunday 3 May 2015

विभीषिका




कुछ पहाड़ 
बर्फ का दुशाला पहन 
छिपा ले जाते हैं
बहुत कुछ?

वो कटता जंगल
सूखती बरसाती नदी
उजड़ते गाँव।

शब्दों की चादर पहन
खिलखिलाती है त्रासदी 
भूली पगडण्डी 
पैरों नीचे धँस जाती है।

सेंध मारती सी कटु होती 
प्यार की भाषा घर ढूँढती है 
ताकता रहता है आसमान 
उड़ते पखेरू नीड़ खोजते हैं।

सुन सको तो 
गूँजते अंतर्नाद को सुनो
जंगल पहाड़ नदी चीर कर 
पुकारता है। 
यदि सवारना है तो 
रचो वो ही धुन 
जो बचा सके 
प्रति पल होती इन विभीषिकाओं से।

*** मंजुल भटनागर

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...