Sunday 22 February 2015

कवि सम्मेलन (हास्य-व्यंग्य)



नगर में बड़े बड़े पोस्टर लगे थे,
देख उनको हमारे भी अरमान जगे थे
शिव रात्रि पर अखिल भारतीय कवि सम्मेलन,
सुनकर चकित हो जायेगा शहर का जन जन
कविता की खुजाल तो बचपन से है,
इस आदत से घर में कोई नहीं अमन से है
दो दोस्तों को साथ ले कर ऐंठ गये,
सबसे पहले पंडाल में जा कर बैठ गये
एक एक करके कवि माइक पर क्रम से आने लगे,
व्हाट्स एप और फेसबुक पर पढ़े चुटकले सुनाने लगे
कवियत्री ने तो गज़ब ही कर डाला,
एक पुराना फिल्मी गीत सड़ी आवाज़ में सुना डाला
मुझे एक भी कवि की कोई कविता नहीं जँच रही थी,
कवियत्री के लिये वंसमोर की आवाज़ के साथ तालिया बज रही थी
क्या अजीब श्रोताओं का टेस्ट था,
मेरे लिये कीमती टाइम वेस्ट था
खुद कवि हूँ अपनी रचनाधर्मिता के बारे में सोच रहा हूँ,
सर के गिने चुने बाल लगातार नोच रहा हूँ
बड़े नाम थे, बड़े इंतजाम के साथ सुरक्षा में पुलिस खड़ी थी,
बड़े लिफाफे थे, सब-कुछ बड़ा पर नहीं कविता बड़ी थी
हम भी समझदार हो कर कैसा गज़ब का धोखा खा गये,
साहित्य और कविता के नाम पर सड़े चुटकले सुन घर आ गये
हमारी चेतना हमारी रचनाधर्मिता सचमुच खो गयी है,
खोदा पहाड़ और निकली चुहिया कहावत सच हो गयी है।।

 
*** प्रह्लाद पारीक

Tuesday 17 February 2015

प्रकृति पर पाँच दोहे






अंधकार ने ली विदा, ऊषा का आगाज़।
धानी चूनर ओढ़ ली, धरती ने फिर आज।।1।।

अम्बर से ऊषा किरण, चली धरा की ओर।
दिनकर की देदीप्यता, उतरी है बिन शोर।।2।।

कितनी सुंदर शांत है, यह शीतल सी छाँव।
देख मनोरम प्रकृति को, हर्षित मन का गाँव ।।3।।

सूरज चंदा काल ये, चलते हैं अविराम।
ये रहते गतिमान तो, लगते हैं अभिराम।।4।।

अरुणोदय की लालिमा, कहती उजली भोर।
कर्म करें बढ़ते चलें, सदा लक्ष्य की ओर।।5।


**हरिओम श्रीवास्तव**

Sunday 8 February 2015

जीवन की कहानी - एक कविता




कभी पूर्णिमा कभी अमावस, सुख दुख आनी जानी 
चन्द्र कला सा है यह जीवन, कहती रात सुहानी।

पल में तोला पल में माशा, 
प्रभु का खेल गजब है। 
अभी आस है अभी निराशा, 
मन का भाव अजब है।

सोच समझकर कदम बढ़ाना, राहें यह अनजानी, 
चन्द्र कला सा है यह जीवन, कहती रात सुहानी।

कहीं मिलेगी धूप विरह की, 
कहीं मिलन की छाया। 
मुश्किल है ये वर्ग पहेली, 
कोई समझ न पाया।
सच्चाई यह जानी सबने, पर कितनों ने मानी, 
चन्द्र कला सा है यह जीवन, कहती रात सुहानी।

राजा है तू या फकीर है,   
इक दिन सबको जाना। 
ऊँचे ऊँचे महल बनाए, 
पर वो नहीं ठिकाना।

विधना के सब लेख निराले, अद्भुत उसकी कहानी,
चन्द्र कला सा जीवन है यह, कहती रात सुहानी।

*** निशा कोठारी

Sunday 1 February 2015

घनाक्षरी














गुम सुम बैठी बैठी तपती है विरह में, 
राह देखे पिऊ का ये पिऊ नाम जपती
कामदेव तीर खींचे बढ़ते ही आ रहे हैं, 
मधुमास अगन में कोकिला ये तपती
पात शेष एक नहीं वृक्ष भी नगन हुए, 
धरा पीत वसना हो आज खूब खपती
रवि संग रंग कर मगन है गगन ये, 
पिक की ये पलक तो पल को न झपती
           

             *** छाया शुक्ला ***

प्रस्फुटन शेष अभी - एक गीत

  शून्य वृन्त पर मुकुल प्रस्फुटन शेष अभी। किसलय सद्योजात पल्लवन शेष अभी। ओढ़ ओढ़नी हीरक कणिका जड़ी हुई। बीच-बीच मुक्ताफल मणिका पड़ी हुई...