Sunday 27 December 2015

बड़ा दिन पर दोहे




पहला दिन कल से बड़ा, बढ़त मिले हर रोज
बैठे गुनगुन धूप में, हो गाजर का भोज।।

कर सौलह शृंगार अब, आया है नव वर्ष
ज्ञानोदय पथ पर बढ़े, सार्थक करे विमर्श।।

प्रेम भाव दिन-दिन बढ़े, जीवन में उत्कर्ष
भाव भरे माँ शारदे, शुभ शुभ हो नववर्ष।।
 
मनुज करे न तनिक कभी, दिल में कोई कर्ष
सच्चे अर्थों में तभी, शुचित प्रस्फुटित हर्ष।।
 
साथी सब मिलजुल रहे, इक दूजे के संग
घर पर यूँ खिलते रहे, प्रेम प्रीत के रंग।।

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*** लक्ष्मण रामानुज लडीवाला  ***

Sunday 20 December 2015

चित्र आधारित कुछ दोहे



दादा दादी चल बसे, छोड़ा यह संसार।
जिस घर में रौनक रही, अब एकल परिवार।।

बेच दिया था घर यही, बेटा पढ़ लिख जाय।
मुन्ना आज विदेश में, दौलत बहुत कमाय।।

घर मुझको तुम बेचकर, दो गुड़िया को ब्याह।
बापू को थे दे रहे, चाचू नेक सलाह।।

समय नहीं रहता कभी, सुनिए एक समान।
जो कल अपनी आन था, आज किसी की शान।।

बीत गया बचपन जहाँ, अब वह कितना दूर।
बदलेगा फिर से समय, जीने का दस्तूर।।

◆ गुरचरन मेहता 'रजत' ◆

Sunday 13 December 2015

अपनी करनी पार उतरनी

 


अपनी करनी पार उतरनी, उक्ति बहुत पुरानी है
इस उक्ति में बात है साची, सकल जगत नें मानी है
जैसा बोये वैसा काटे, बचपन ही में जाना था
जैसी करनी वैसी भरनी, इसी बात को माना था
बुरा करोगे बुरा भरोगे, कहती थी मेरी नानी
आज की पीढ़ी इन उक्ति से, रहे भला क्यों अनजानी
चला जो कागा चाल हँस की, सदा स्वयं को भरमाया
मोर ने जब अपने पग देखे, नाचत नाचत शरमाया
इसीलिए कहता है ‘सागर’, ज्ञान का तुम संज्ञान करो
शठ सुधरे सतसंगति पा के, इसको भी तुम ध्यान धरो


विश्वजीत शर्मा 'सागर'

Sunday 6 December 2015

एक क़’तअ



यही इच्छा हमारी है, चलो कुछ काम कर जायें,
वतन पर जान देकर हम, फ़क़त गुमनाम मर जायें,
हमें सब कुछ दिया इसने, इसे हमने दिया क्या है?
बुराई को मिटा दें अब, ख़ुशी सब नाम कर जायें।


*** विजय मिश्र ‘दानिश’ ***

Sunday 29 November 2015

एक चित्र मुक्तक




रहता था गुलजार चमन जो, वीरानी क्यों शाम हो गई,
पदचिन्हों से है परिलक्षित, रौनक आज तमाम हो गई,
उपवन भी क्या सच से वाकिफ, कब लौटे हैं जाने वाले,
संध्याकाल और नीरवता, जीवन का अंजाम हो गई।


**हरिओम श्रीवास्तव**

Sunday 22 November 2015

एक गीत



अरुण उषा में उगता सूरज, स्वर्णिम किरणें लाया है
सोच रही दृग बंद किये मैं, मन में कौन समाया है


तन उन्मादित मन उल्लासित, पौर-पौर इतराया यूँ
स्वप्न हुए सब वासन्ती, मन मेरा इठलाया यूँ
शुष्क हृदय को आर्द्र बनाता, बरखा सम मन भाया है
अरुण उषा में उगता सूरज, स्वर्णिम किरणें लाया है


प्राची की आभा में देखो, पंछी बन कर चहक रहा
दिशा-दिशा को सुरभित करता, चन्दन वन सा महक रहा
अन्तर्मन के उपवन को वो, प्रमुदित करने आया है
अरुण उषा में उगता सूरज, स्वर्णिम किरणें लाया है


***** दीपिका द्विवेदी 'दीप'

Sunday 15 November 2015

चंद दोहे


लीला लीलाधर करी, उठा पेट में दर्द
हारे वैद्य हकीम सब, दर्द बडा बेदर्द।।

नारद पूछें कृष्ण से, आपहि कहो निदान
भक्त चरण रज जो मिले, होय तबहि कल्यान।।

नारद घूमें सकल जग, काहू न दीन्ही धूरि
नरक गमन मन सालता, भागि चले सो दूरि।।

गोपी इक ऐसी मिली, सुनि नारद के बैन
पैर मले बृजभूमि में, आभा पूरित नैन।।

नारद गोपी से कहें, नरक मिलेगो तोहि। 
डरी नहीं हतभागिनी, समझाओ तो मोहि।।

श्याम दर्द जो ठीक हो, नरक सरग सब व्यर्थ। 
ज्ञानी ध्यानी आप हो, समझो प्रेमिल अर्थ।।

प्रिय हित ओढ़े सकल दुख, प्रेमी की पहचान
नाची जंगल मोरिनी, नारद जग अनजान।।

गोप कुमार मिश्र

Saturday 7 November 2015

दीप जलाऊँ


हर दिशा में तम गहराया,
इतने दीप कहाँ से लाऊँ,
जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ।


एक भावना के आँगन में,
एक साधना के आसन पर,
एक उपासना के मंदिर में,
एक सत्य के सिंहासन पर,
बनूँ मैं माटी किसी दीप की,
और कभी बाती बन जाऊँ,

जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ,


एक दिल के तहखाने में भी,
स्वप्निल तारों की छत पर भी,
एक प्यार की पगडण्डी पर,
खुले विचारों के मत पर भी,
जलूँ रात भर बिना बुझे मैं,
तेल बनूँ तिल तिल जल जाऊँ,

जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ


एक दोस्ती की बैठक में,
एक ईमान की राहों पर भी,
एक मन की खिड़की के ऊपर,
एक हंसी के चौराहों पर भी,
दीप की लौ है सहमी-सहमी,
तुफानों से इसे बचाऊँ,

जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ


बचपन के गलियों में भी एक,
और यादों के पिछवाड़े में भी,
अनुभव की तिजोरी पर एक,
और उम्र के बाडे में भी,
बाती की अपनी सीमा है,
कैसे इसकी उम्र बढ़ाऊँ,

जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ


हार है निश्चित अंधेरों की,
जग में एेसी आस जगाऊँ,
सुबह का सूरज जब तक आये,
मैं प्रकाश प्रहरी बन जाँऊ,
हर दिशा में तम गहराया,
इतने दीप कहाँ से लाऊँ,

जहाँ अँधेरा सबसे ज्यादा,
उन कोनों में दीप जलाऊँ


-: संजीव जैन:-

Sunday 1 November 2015

प्रतीक्षारत

 
ऋतु शीत है, धरा तुहिन पोषित है, संगीत है,
मकरंद सरोरुह अर्जित है, भ्रमर गुंजित है,

मंजरी झूमे है, सुन वादन मन मदन ग्रसित है,
शाख शाख पलास पल्लवित है, बदन स्पंदित है


पास आयेंगे कंत है, गलबहियाँ अनंत है,
अरुणोदित क्षितिज दिगंत है, आया हेमंत है,
रूपसी लिए रूप चहुंदिक पिय प्रतीक्ष्यन्त है,
कलत्व-मुदित राग इस ओर से उस पर्यन्त है


***सुरेश चौधरी

Sunday 25 October 2015

जय माँ अम्बे

 
शत-शत नमन करूँ तुझको माँ, तू ही भाग्यविधाता
अपने चरणों में रहने दे, कृपा करो हे माता


जिसने तुझको शीश नवाया, शरण तिहारी आया,
उसने सारे कष्ट बिसारे, सुख का जीवन पाया,
ध्याता है वह तुझको निशदिन,तेरे ही गुण गाता,
अपने चरणों में रहने दे, कृपा करो हे माता


जब शिव का अपमान हुआ माँ , तूने धुनी रमाई,
शैलराज के घर माँ जन्मी, शैल सुता कहलाई,
हर नारी में माँ दृढ़ता का, बल तुझसे ही आता,
अपने चरणों में रहने दे, कृपा करो हे माता


कालरात्रि बन माता तूने, हर अँधकार मिटाया,
सारे जग को दे दी सुख की, माता तूने छाया,
तेरा ही है शक्ति रूप में, हर नारी से नाता,
अपने चरणों में रहने दे, कृपा करो हे माता


~ फणीन्द्र कुमार ‘भगत’

Sunday 18 October 2015

एक चतुष्पदी





उलझी सी जीवन राहों में गिर-गिर के संभलना सीख लिया,
कलियों की तमन्ना दिल में लिए काँटों पे चलना सीख लिया,
शिकवा या गिला कुछ भी तो नहीं हमको अपनी परेशानी से,
घुट-घुट के तड़पती आहों ने हँस-हँस के जलना सीख लिया।

  
*** विश्वजीत शर्मा 'सागर'

रीति निभाने आये राम - गीत

  त्रेता युग में सूर्य वंश में, रीति निभाने आये राम। निष्ठुर मन में जागे करुणा, भाव जगाने आये राम।। राम नाम के उच्चारण से, शीतल जल ...