Sunday 23 November 2014

गीत - रंग बदलते देखा

सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला 
के साहित्यिक मंच पर 
मज़मून 29 में चयनित 
सर्वश्रेष्ठ रचना 



समय का पहिया न्यारा भैया, न्यारा विधि का लेखा
इस दुनिया को हर क्षण मैंने, रंग बदलते देखा
 
देखे सूरज, चाँद, सितारे , उगते फिर छिप जाते
जन्म लिया था कल जिसने, फिर देखा कल मर जाते
मैंने देखा राजमहल को, मिट्टी में मिल जाते
झोंपडियों की जगह खड़े, कुछ शीशमहल मदमाते
गाते थे जो प्यार के नगमें, विरह सुनाते देखा
इस दुनिया को हर क्षण
मैंने, रंग बदलते देखा
 
बड़े बड़े राजे-महाराजे, पथ के बने भिखारी
भिखमंगों को बनते देखा, धन्ना सेठ हजारी
पाप कमाते देखा है जो, पुण्य किया करते थे
हाथ पसारे देखा है जो, दान दिया करते थे
गदराए यौवन को
मैंने, पल-पल ढलते देखा
इस दुनिया को हर क्षण
मैंने, रंग बदलते देखा 

देखा मैंने पिता पुत्र को, मरघट तक ले जाता
जिन हाथों से गोद खिलाया, उनसे चिता सजाता
देखा है कि माँ के सन्मुख, बेटी विधवा हो जाती
माँ करती सोलह- शृंगार, बेटी वैधव्य बिताती
प्रभु के घर में देना होता, हमको सारा लेखा
इस दुनिया को हर क्षण
मैंने, रंग बदलते देखा
 
समय का पहिया न्यारा भैया, न्यारा विधि का लेखा
इस दुनिया को हर क्षण
मैंने, रंग बदलते देखा

*** विश्वजीत शर्मा सागर’***

Sunday 16 November 2014

आये थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास

सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला 
के साहित्यिक मंच पर 
मज़मून 28 में चयनित 
सर्वश्रेष्ठ रचना 




प्रथम स्वीकार मरण को कर,  
जीव लालसा त्यज। 
जाग्रत मन ही कर सके,  
तू बैठा क्यों व्यग्र। 
आये थे जग में जब
 सीमित साध थी तेरी, 
 फिर बहका क्यों आडम्बर में,  
बढ़ा प्यास घनेरी, 
लक्ष्य तेरा था मुक्ति सदा से, 
 बंधन में क्यों जकड़ा,
 मुक्ति राह का अनुगामी तू,  
जग में क्यों कर अटका,  
बन अवलम्ब दुखियों का,  
विपन्न देव तू मान। 
 उनकी बन जा आस। 
 सार्थक जीना जान,  
छोड़ भौतिक प्यास,  
कर ले थोड़ा हरि भजन, 
 आया तू इसीलिए, 
 ओटे क्यों कपास

*** छाया शुक्ला ***


 

Sunday 9 November 2014

एक ग़ज़ल

सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला 
के साहित्यिक मंच पर 
मज़मून 27 में चयनित 
सर्वश्रेष्ठ रचना



बदलते हुए मौसमों के सताए।
 सुलगने लगे हैं दरख्तों के साए।।

बहारों के मौसम फुहारों के महीने।
 भटकते हुए बादलों ने रुलाए।।

दहकते हुए दिन उबलती-सी रातें।
 क़सम की क़सम चाँदनी भी जलाए।।

उजङते चमन सूखते पनघटों ने।
 कुँवारे दिलों के भी सपने चुराए।।

गगन की जमी से बढ़ी बेरुखी से।
 जिया भी न जाए मरा भी न जाए।।

बिना पात तरु पर बने घोंसले में।
 परिन्दा भी अश्कों के झरने बहाए।।

***रामकिशोर गौतम***


रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...