Sunday 28 September 2014

ज़िंदगी की डगर

सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला 
के साहित्यिक मंच पर 
मज़मून 21 में चयनित 
सर्वश्रेष्ठ रचना
  ज़िंदगी की डगर 
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ज़िंदगी की डगर, संग चलते हुए , 
हमने देखे हैं पत्थर पिघलते हुए
 धूप के सिलसिले छाँव के गाँव में 
पाँव चलते रहे यूँ ही जलते हुए
पंथ दुर्गम हमें मुस्कुराते लगे 
गुनगुनाते रहे हम सँभलते हुए
समर्पण को आतुर दिखी इक नदी
 हमने देखे समंदर मचलते हुए
इस सफ़र का कभी अंत होता नहीं 
रश्मियों ने कहा हमसे ढलते हुए
*** प्रो.विश्वम्भर शुक्ल ***

Sunday 21 September 2014

अपनी डफली अपना राग

सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला 
के साहित्यिक मंच पर 
मज़मून 20 में चयनित 
सर्वश्रेष्ठ रचना


संसार में कोई अनुरागी तो किसी में लिपटा विराग है
कोई सोया निश्चिन्त तो कहीं सदियों की बेचैन जाग है 

कहीं प्रेम की शीतल छाँव तो कहीं बदले की आग है
कोई भोला-भाला बेखबर तो कोई पहुँचा हुआ घाघ है

कहीं दुःख का सूखा मरुस्थल तो कहीं ख़ुशी का बाग़ है
एक ईश्वर की संतान पर सबका अपना-अपना कर्म-भाग है

कोई चरित्र से निरा साफ़ पाक तो किसी पर लगा दाग है
कैसे समझे गज़ब दुनिया को यहाँ तो भाँति-भाँति के राग है
क्योंकि सबकी अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग है


 डॉ.अनीता जैन 'विपुला'
 

Sunday 14 September 2014

इंसान और आदमी

सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला 
के साहित्यिक मंच पर 
मज़मून 19 में चयनित 
सर्वश्रेष्ठ रचना

 
 
आज का इंसान, बनता जा रहा है आदमी,
आदमीयत के तराने, गा रहा है आदमी।
हम हैं ज्ञानी, हम हैं ध्यानी, हमसे ही संसार है,
हम हुये हैं आधुनिक, समझा रहा है आदमी।
शास्त्र सम्मत, नारियों को, पूजना तो छोड़िये,
बन नराधम कोख को, दहला रहा है आदमी।
पोतियों की उम्र की, पत्नी उसे है चाहिये,
इश्क़, लटका क़ब्र में, फ़र्मा रहा है आदमी।
पूँछ खोयी, मूँछ खोयी, खो दिये संस्कार सब,
फिर भी अपने आपको, बहला रहा है आदमी।
बन्धु-बान्धव औ सगे-नाते, नदारद हो चुके,
बारहा शैतान को, शरमा रहा है आदमी।
क्या ज़रूरत बोझ ढोयें, मात-पित का खामखाँ,
इसलिये वृद्धाश्रम, बनवा रहा है आदमी।
जर, ज़मीं, जोरू ही अब हैं, आदमी की नेमतें,
नीचता की हर हदें, अजमा रहा है आदमी।
ये क़यामत की अलामत, तो नहीं ‘वर्मा’ कहीं?
कुछ न भाता, आदमी को, खा रहा है आदमी।
 
***छत्र पाल वर्मा***

Sunday 7 September 2014

यक्ष प्रश्न

सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला 
के साहित्यिक मंच पर 
मज़मून 18 में चयनित 
सर्वश्रेष्ठ रचना


चेहरे की हँसी से किसी के,
दिल का हाल मत पूछो,
बादल क्यों बरसता रहा रात भर,

बिजलियों से जा के पूछो

आसमाँ छू सको तो,
शौक़ से चले आओ उड़ने,
पर मंज़िल कहाँ मिलेगी,
यह रास्तों से पूछो


घर के ज़ख्मों को,
छिपा लेते हैं जगमगाते फानूस,
इन दीवारों में क्या दफ़न है?

घर के झरोखों से पूछो

आँधियाँ कितनी बेरहम थी उन दिनों,
यह बात पंछियों से मत पूछो,

कौन सा परिंदा बेघर हुआ,
पेड़ की टूटी डालियों से पूछो


मटमैला-सा आलम है,
आसमानों में धुआँ-धुआँ क्यों है?
फूलों को खिला रहने दो बागवानों में,
तितलियाँ कहाँ खो गयीं,
यह पिछली सदी से पूछो

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मंजुल भटनागर

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...