Sunday 28 December 2014

उत्सव

'सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला' 
मज़मून 34 में चयनित सर्वश्रेष्ठ रचना 













याद नहीं आया, पिछली बार मिले कब थे?
किस बात के गिले और शिकवे क्यों थे?

एक पल में ही पिघल गयी बर्फ़ रिश्तों की,
दोनों सोचने लगी की अब तक जुदा क्यों थे? 


बहुत याद किया बात कुछ समझ नहीं पायी।
इस बार ईद जब दीवाली से मिलने आयी।

  
ज़रा सा चौंक गयी और ज़रा सा घबराई,
ज़रा सा ठिठकी वो और ज़रा सा सकुचाई,
फिर दौड़ कर बस गले लग गयी दोनों
बहुत रोई मिल कर और बहुत ही पछताई। 


हँसी होंठों पर आँख से ख़ुशी छलक आयी।
इस बार ईद जब दीवाली से मिलने आयी। 


अपने मन्दिर का प्रसाद और मिठाई देकर,
रख दिये मन्दिर में सभी तोहफ़े लेकर,
गले मिली तो इस तरहा कि दो सहेली मिलें,
फिर द्वार पर विदाई दी हाथ मे हाथ लेकर, 


नई ख़ुशियाँ और नई रोशनी लेकर चली आयी।
इस बार ईद जब दीवाली से मिलने आयी। 


***संजीव जैन***

Sunday 21 December 2014

दरख़्त

सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला 
के साहित्यिक मंच पर 
मज़मून 33 में चयनित 
सर्वश्रेष्ठ रचना 



टूटकर जाने कहाँ खो गए पत्ते,
पर सब्र डिगा नहीं दरख़्तों का।
आज कुछ है तो कल कुछ होगा,
यही तो फितरत है मौसम की।
और कुर्सी की भी ग़ज़ब दिल्लगी,
इंतज़ार फिर किसी के आने का।
हम तो परिंदे हैं कहाँ रुकने वाले,
हमें तो शौक़ है उड़ानों का।
ओ सर्दी तू मुझसे मज़ाक़ तो न कर,
दरिया हूँ मुझे ज़रुरत नहीं बहानों की।
 
***ललित मानिकपुरी***

Sunday 14 December 2014

ऊँची दुकान और फीका पकवान

सत्यं शिवं सुन्दरम् - साहित्य सृजन मेखला 
के साहित्यिक मंच पर 
मज़मून 32 में चयनित 
दो रचनाओं में चन्द दोहे और एक कविता 


झूठ बोलते जोर से, ऊँची बड़ी दुकान।
नहीं छुपेगा सत्य यूँ, फीके हैं पकवान।।1।।

सीख दे रहे और को, ऊँची बड़ी दुकान।
हज्ज बिलाई खुद बने, फीके हैं पकवान।।2।।

जनता के सेवक बने, ऊँची बड़ी दुकान।
दो टकिया के लोग ये, फीके हैं पकवान।।3।।

बन्दे सब गंदे भये, ऊँची बड़ी दुकान।
मन मैले तन ऊजला, फीके हैं पकवान।।4।।

काला कागा मन भया, ऊँची बड़ी दुकान।
लगा दाग दीखे नहीं, फीके हैं पकवान।।5।।

***जी पी पारीक***


ऊँची दुकान फीका पकवान है,
कच्चा निवास, पक्का मकान है।
दुर्योधन ने नहीं बताया,
जन्घो से कमजोर हूँ
कीचक ने भी नहीं बताया,
मै राहजनी का चोर हूँ
थे निर्बल किन्तु लगे बलवान है,
ऊँची दुकान फीका पकवान है
कैसे कहूँ पाप की जड़ मजबूत है,
पांडु और पांडव पापी जन्म प्रसूत है
और गिनाये किसको दानी महा कर्ण भी,
वेदव्यास भी द्रोंण पात्र कुल वर्ण भी
थे तर्क नहीं, पौराणिक मान है;
ऊँची दुकान फीका पकवान है
लिख-लिख मै तंग हो रहा,
शेर गधे के संग हो रहा;
बदरंग सामाजिक रंग हो रहा,
दुष्कर्मी ही कथा-प्रसंग हो रहा,
सफ़ेद पोश ही काला परधान है;
ऊँची दुकान फीका पकवान है
कैसी दृष्टि हुयी युग आवर्तन,
कैसी सृष्टि हुयी जग परिवर्तन!
दर्शक में क्या भेद दृष्टि का,
निगमागम है सार सृष्टि का!
रीति-नीति, शुचि-प्रीति तो हैरान है;
दिलहीन विकास सह विज्ञान है
ऊँची दुकान फीका पकवान है।।

***हरिहर तिवारी***

 

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...