Saturday 8 June 2013

एक क़त'आ (संक्षिप्त जानकारी सहित)


आदमी भूख से डर गया,
भूख की मार से मर गया,
ये रही दूर जब ऐ ‘सपन’
सहर वो रात की कर गया।



क़तआ के बारे में संक्षिप्त जानकारी ...
यह चार मिसरों (पंक्तियों) की एक कविता होती है, जो एक ही बह्र में होती है और इसमें रदीफ़ और क़ाफिया का भी ख़याल आवश्यक होता है। दरअसल यह एक तरह से ग़ज़ल की तरह से ही लिखी जाती है और तुलना की जाए तो ग़ज़ल के मत्ले और एक शे’र की रचना कही जा सकती है, लेकिन यह ग़ज़ल से इस प्रकार भिन्न है कि इसमें भाव और विषय की निरंतरता होती है, जबकि ग़ज़ल के सभी शे’र स्वतंत्र भाव वाले हो सकते हैं। हिंदी में यह मुक्तक के करीब जैसी रचना होती है, किन्तु मुक्तक कभी क़तआ नहीं है। प्रस्तुत क़त'आ में 

बह्र - बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
तक्ती - फ़ा-इ-लुन फ़ा-इ-लुन फ़ा-इ-लुन फ़ा-इ-लुन
रदीफ़ - गया
क़वाफ़ी - डर, मर, कर
                                                                                                                                 विश्वजीत 'सपन'
                                                                                                                                 08-06-2013

Saturday 1 June 2013

न सताया करो, न रुलाया करो (एक गीत)

पेड़ की छाँव में,
    मेरे ही गाँव में,
    न सताया करो, न रुलाया करो।

चाँदनी रात है,
आस की प्यास है,
घर भी मेरा कहीं, बस तेरे पास है,
आया-जाया करो और बुलाया करो
न सताया ....

सुबह होने लगी,
शब को मेंहदी लगी,
कू-कू करती ये कोयलिया गाने लगी,
तुम भी गाया करो और सुनाया करो,
न सताया ....

नींद में ख़्वाब है,
ख़्वाब में प्यार है,
ख़्वाब ही ख़्वाब में तेरा दीदार है,
तुम सुलाया करो और जगाया करो,
न सताया ....
विश्वजीत 'सपन' 
01.06.2013

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...