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छंद सार (मुक्तक)
अलग-अलग ये भेद मंत्रणा, सच्चे कुछ उन्मादी। राय जरूरी देने अपनी, जुटे हुए हैं खादी। किसे चुने जन-मत आक्रोशित, दिखा रहे अंगूठा, दर्द ...
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अंधकार ने ली विदा, ऊषा का आगाज़। धानी चूनर ओढ़ ली, धरती ने फिर आज।।1।। अम्बर से ऊषा किरण, चली धरा की ओर। दिनकर की देदीप्यता, उतरी ...
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पिघला सूर्य , गरम सुनहरी; धूप की नदी। बरसी धूप, नदी पोखर कूप; भाप स्वरूप। जंगल काटे, चिमनियाँ उगायीं; छलनी धरा। दही ...
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह क्या बात है सपन जी भाई साहब... बहुत ही सुन्दर ढंग से देश प्रेम के भावों को आपने यहाँ पंक्तिबद्ध किये हैं... बधाई आपको... सादर वंदे...
ReplyDeleteसुरेन्द्र नवल जी,
Deleteबहुत-बहुत आभार आपका ... आपके शब्द प्रेरित करते हैं ...
सादर नमन