Monday 14 May 2012

माँ - मदर्स डे पर विशेष

माँ,
तुम कहाँ हो?
आज ढूँढ रहा हूँ तुम्हें,
कल तक तुम देहरी पर बैठी,
एक बुढ़िया थी,
लाचार, बेबस उम्र से,
शरीर साथ नहीं देता था,
और मैं,
तुम्हारा सामना करने में झिझकता था,
मुझे बहुत सारे काम थे,
जीवन में सभी आराम थे,
आज तुम नहीं हो,
ढूँढ रहा हूँ तुम्हें,
माँ?
तुम कहाँ हो?


(2)

माँ,
तुम कहाँ हो?
पाल-पोसकर बड़ा किया तुमने,
दूध नहीं तो अपना रक्त पिलाया तुमने,
अभागा मैं समझ न सका,
माँ की ममता न देख सका,
स्वयं ही में मशगूल रहा,
तुम बोली भी,
तो अनजान बना रहा,
तेरे बलिदानों को भुला दिया मैंने,
अपने सुख पर अभिमान किया मैंने,
आज तुम नहीं हो,
तो ढूँढ रहा हूँ तुम्हें,
माँ?
तुम कहाँ हो?


(3)

माँ,
तुम कहाँ हो?
याद है वो दिन,
भागकर आया था स्कूल से,
आँचल में छुपा लिया था तुमने,
झगड़ाकर आया था खेल के मैदान से,
आँचल में छुपा लिया था तुमने,
परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया था,
आँचल में छुपा लिया था तुमने,
और मैं?
तुम्हें पहचानने से भी कतरा गया था,
मित्रों के मध्य वह एक बुढ़िया है, कहता गया था,
आज तुम नहीं हो,
तो ढूँढ रहा हूँ तुम्हें,
माँ?
तुम कहाँ हो?


(4)

माँ,
तुम कहाँ हो?
वह दिन अब भी नहीं भूलता है,
सब चलचित्र के समान घूमता है,
डूब रहा था दरिया में,
कूद पड़ी थी तुम,
बहाव तेज था,
हम दोनों ही बह निकले थे,
लेकिन,
तुमने मुझे नहीं छोड़ा था,
समझ जाना था उसी दिन,
माँ के आँचल की छाया संतान के लिए होती है,
संतान कुछ दे नहीं सकता,
प्यार के बोल बोल सकता है,
मैंने यह भी नहीं किया,
और?
आज तुम नहीं हो,
तो ढूँढ रहा हूँ तुम्हें,
माँ?
तुम कहाँ हो?

Sunday 13 May 2012

हे मातृभूमि है तुम्हें प्रणाम - एक देशभक्ति गीत






 

 

 



 

 

रोम-रोम तेरा यश गाये,

साँस-साँस में तू बस जाये,

हे मातृभूमि है तुम्हें प्रणाम ...

 

हार के आऊँ या जीत कर,

गले लगाती तू प्रीत कर,

कोई चाहे हो संग्राम,

हे मातृभूमि है तुम्हें प्रणाम ...

 

जीत होगी तुम्हें ही अर्पण,

हार हुई तो मेरा दर्पण,

अब न करूँगा कभी विराम,

हे मातृभूमि है तुम्हें प्रणाम ...

 

गीत लिखा है तेरी जय का,

स्वर डाला है नवजीवन का,

रहेगा जीवित स्वर-संग्राम,

हे मातृभूमि है तुम्हें प्रणाम ...

 

हर कंटक को दूर करूँगा,

हर दुश्मन से लोहा लूँगा,

अब चाहे हो जो अंजाम,

हे मातृभूमि है तुम्हें प्रणाम ...

 

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...