(१)
तुम तो ज़ालिम हो,
सामने आकार गुज़र जाती हो,
कभी सोचा है तुमने ?
उस दिल का क्या होगा ?
जिसपे चलकर गुज़र जाती हो !
(२)
तुम तो ज़ालिम हो,
सामने आकार गुज़र जाती हो,
कभी सोचा है तुमने ?
उन वादों का क्या होगा ?
जिसे तोड़ रुसवाई ले जाती हो।
(३)
तुम तो ज़ालिम हो,
सामने आकार गुज़र जाती हो,
कभी सोचा है तुमने ?
न कुछ साथ आता है, न कुछ साथ जाता है,
क्या ऐसा नहीं हो सकता ?
हम साथ-साथ रह लें,
कुछ दिन,
बस कुछ दिन ही।
(४)
तुम तो ज़ालिम हो,
बस, देख भर लेती हो,
कभी सोचा है तुमने ?
तुम्हारा दर्द सीने मैं लिए कोई बैठा है,
कब से गुमसुम, बेख़बर, ग़मगीन,
कि शायद उसकी सुधि लो।
(५)
तुम तो ज़ालिम हो,
बस, देख भर लेती हो,
टोकती नहीं, हँसती नहीं,
कुछ बोलती नहीं, कुछ कहती नहीं,
माना, ख़ुदा ने मर्दों को बेशर्म बनाया है,
मगर,
उसका क्या होगा ?
जो चाहता है,
लिखता भी है,
मगर, कह न पाता है।