Saturday 26 November 2011

क्षणिकाएँ - तुम तो ज़ालिम हो

(१)

तुम तो ज़ालिम हो,
सामने आकार गुज़र जाती हो,
कभी सोचा है तुमने ?
उस दिल का क्या होगा ?
जिसपे चलकर गुज़र जाती हो !

(२)

तुम तो ज़ालिम हो,
सामने आकार गुज़र जाती हो,
कभी सोचा है तुमने ?
उन वादों का क्या होगा ?
जिसे तोड़ रुसवाई ले जाती हो।

(३)

तुम तो ज़ालिम हो,
सामने आकार गुज़र जाती हो,
कभी सोचा है तुमने ?
न कुछ साथ आता है, न कुछ साथ जाता है,
क्या ऐसा नहीं हो सकता ?
हम साथ-साथ रह लें,
कुछ दिन,
बस कुछ दिन ही।

(४)

तुम तो ज़ालिम हो,
बस, देख भर लेती हो,
कभी सोचा है तुमने ?
तुम्हारा दर्द सीने मैं लिए कोई बैठा है,
कब से गुमसुम, बेख़बर, ग़मगीन,
कि शायद उसकी सुधि लो।

(५)

तुम तो ज़ालिम हो,
बस, देख भर लेती हो,
टोकती नहीं, हँसती नहीं,
कुछ बोलती नहीं, कुछ कहती नहीं,
माना, ख़ुदा ने मर्दों को बेशर्म बनाया है,
मगर,
उसका क्या होगा ?
जो चाहता है,
लिखता भी है,
मगर, कह न पाता है।

Tuesday 15 November 2011

नवयुवक एवं दायित्व


नवयुवकों के वृषभ कन्धों पर,
नवयुग का भार,
अत्यंत वृहद्,
ढोकर चलना है उनको,
नवीन परम्पराओं का भार असह्य।
विगत मौसमों में पिघलता जीवन,
पल-पल करवट बदलता जीवन,
प्रलय प्रवाह-सा बहता जीवन,
उदय नव-प्रसून का,
आभास नव-जीवन का,
गरजता मौसम बादल से,
छ्लकता मोती सीप से,
बदलता सावन नव-कलिकाओं से,
नई उमंग, नया सवेरा, विराम नया,
नई दृष्टि, नई आशा, जीवन नया,
नई उलझन, नये गलीचे, मकान नया,
तब,
दृष्टिकोण पुरातन क्यों ?
उठो, जागो, नवयुवको !
नवयुग का भार वहन करो,
किनारे नये,
किरण नई,
व्यक्तित्व नये ।

रस्म-ओ-रिवाज - एक ग़ज़ल

  रस्म-ओ-रिवाज कैसे हैं अब इज़दिवाज के करते सभी दिखावा क्यूँ रहबर समाज के आती न शर्म क्यूँ ज़रा माँगे जहेज़ ये बढ़ते हैं भाव...